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________________ मेवाड़ के जैन-चोर ब्रीड़ा-पीड़ा निराशा भरित वचन ये, भूप.के वृद्ध मंत्रीशोकात होगया हा! श्रवण कर, गई टूटसी. प्राण-तंत्री पैरों में वृद्ध मंत्री गिरकर नृप के वृक्ष छिन्न.लता, से, श्री राणा से लगा यों तब, फिर करने प्रार्थना नम्रता से ।। (१८) स्वामी हो आप नामी इस अनवर की देह के अन्नदाता, खाया है अन्न मैंने तव, अवतक हूँ आपका अन्न खाता, है द्वारा देह की जो रुधिर, वह घना अन्न से श्राप ही के, स्वामी हो आप मेरे, तन, धन, जन के भूमि सभी के ॥ मेरा सर्वत्व हो है तन-सहित प्रभो ! भूपते ! आपका ही, भागी हूँगा न दूँ जो तन धन नप के हेतु, मैं पाप का ही। जूता मैं श्री पदों के हित यदि वनवा देह की चर्म से दूँ, तो भी है हाय ! थोड़ा यदि तव ऋण को मूढ़ मैं धर्म से+॥ (२०) है ही क्या शक्ति ऐसी प्रभूवर ! मुममें दे सकूँ जो सहाय! सिंहों की गीदड़ों से कब विपद घटी बोलिये, हाय ! हाय !! तो भी है पास मेरे कुछ धन जिसको सौंपता आपको मैं, पाके सो भूप ! लौटे, नहीं सह सकता मात-भ-ताप को मैं ।। (२१) कीजे रता प्रजा की इस धन-चल से देश की जाति की भी, कीजे हे भूप! रक्षा इस धन-बल से वंश की, ख्याति की भी। होगी सर्वेश को जो अतुलित करुणा, वात सारी बनेगी, जीतेंगे शत्रुओं को, विषम विपद में शीघ्र सारी कटेगी।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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