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________________ मेवाड़ के वीर प्रसन्नता पूर्वक रणक्षेत्र में अपने साथ रहते हुये देखकर यही कहा करते थे कि "राजपूतों का जन्म ही इसलिये होता है।" परन्तु उस पर्वत जैसे स्थिर मनुष्य को भी आपत्तियों के प्रलयकारी झोकों ने विचलित कर दिया। एक दफा जंगली अन्न के आटे की रोटियाँ बनाई गई और प्रत्येक के भाग में एक एक रोटी-आधी सुबह और आधी शाम के लिये-आई । राणा प्रताप राजनैतिक पेचीदा उलझनों के सलमाने में व्यस्त थे, वे मातृ-भूमि की परतंत्रता से दुखी होकर गर्म निश्वास छोड़ रहे थे कि, इतने में लड़की के हृदय-भेदी चीत्कार ने उन्हें चौंका दिया। वात यह हुई कि एक जंगली बिल्ली छोटी लड़की के हाथ में से रोटी को छीन कर लेगई, जिससे कि वह मारे भूख के चिल्लाने लगीं। ऐसी ऐसी अनेक आपत्तियों से घिरे हुये, शत्रु के प्रवाह को रोकने में असमर्थ होने के कारण, वीर चूडामणि प्रताप मेवाड़ छोड़ने को जव उद्यत हुए तब भामाशाह राणाजी के स्वदेश-निर्वासन के विचार को सुनकर रो उठा । इस करुण दृश्य को कविवर लोचनप्रसादजी पाण्डेय ने (खंडवा से प्रकाशित ५ जून सन् १९१३ की प्रभा में) इस प्रकार चित्रित किया था: "राणा मेवाड़-स्वामी अहह ! कर रहे आज हैं देश त्याग, वंशं, ख्याति, प्रतिष्ठा-हित दुख बन के, ले रहे सानुराग ।" पाते ही. वृद्ध मंत्री वह वणिक, अहो! वृत्त ऐसा दुरन्त, 'घोड़े पें हो सवार प्रखर गति चला शाहमामां तुरन्त ।।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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