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________________ ५० राजपूताने के जैन-चीर ... . .. "इस मन्दिर के विषय में यह प्रसिद्धिःहै कि पहिले यहाँ. ईंटों का बना हुआ एक जिनालयः था, जिसमें टूट जाने पर उसके जीर्णोद्धार रूप पाषाण का यह नया मन्दिर बना ! यहाँ के शिलालेखों से पाया जाता है कि इस मन्दिर के भिन्न भिन्न विभाग अलग अलग समय के बने हुए हैं। खेल मंडप की दीवारों में.. लगे हुये दो शिलालेखों में से एक वि०सं०-१४३१ वैशाख सुदी ३ बुधवार का है, जिसका आशय यह है कि दिगम्बर .सम्प्रदाय के काष्टासंघ के भट्टारक श्री धर्मकीर्ति के उपदेशसे साह (सेठ) वीज़ा के बेटे हरदानने इस जिनालय का जीर्णोद्धार कराया । उसी मंडप में लगे हुये वि० सं०.१५७२.वैशाख सुदी ५ के शिलालेख से ज्ञात होता है कि काष्टासंघ के अनुयाई काछलूगोत्र के कड़ियापोइया और उसको भरमी के पुत्र हाँसा ने धूलीव (धूंलेव) गाँव में श्री ऋषभनाथ को प्रणाम कर भट्टारक श्री जसकीर्ति (यशकीति) के समय मंडप तथा नौचौको वनवाई। इन दोनों शिलालेखों से ज्ञात होता है कि गर्भगृह (निजमन्दिर) तथा उसके आगे का खेला मंडप वि० सं० १४३१ में और नौचौकी तथा एक ओर मंडप वि० सं० १५७२ (ई०स० १५१५) में बने । देव कुलिकाएँ पीछे से बनी हैं क्योंकि दक्षिण की देव कुलिकाओं की पंक्ति के. . मध्य में मंडप सहित जो मन्दिर है, उसके द्वार के समीप दीवार __ + तीनों ओर की देवकुलिकाओं की पंक्तियों के मध्य में बने हुये. मंडर बाल तीनो मन्दिरों को वहाँ के पुजारी लोग नैमिनाथ के मन्दिर कहते हैं, परन्तु इस मन्दिर के शिलालेख तथा इसके भीतर की मूर्ति के आसन पर के लेखं से निश्चित है कि यह तो ऋषभदेव का ही मन्दिर है। बाकी के दो मन्दिर किन तीर्थंकरों के हैं, यह उनमें कोई लेखं न होने से ज्ञात नहीं हुआ. ..
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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