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________________ . सिंहावलोकन ३४३ और दुखी निराश्रितों के लिये पहलू में दर्द, कलेजे में तड़प थी। तव उनका राजपूताने में क्या जहाँ भी वह रहते थे, उनका अलौकिक चमत्कार था, उनके पुण्यशील परमाणुओं का राजा प्रजा सभी पर असर पड़ता था। उन्होंने अपने अलौकिक. चमत्कार से कितने ही चिरस्मरणीय कार्य सम्पन्न किये, उनकी सदाचार पत्ति और वीर-प्रकृति से प्रभावित होकर कितने ही राजा और सरदार उनके धर्म के अनुयायी बने । यही कारण है कि उस काल में करोड़ों राजपूत जैनधर्म में दीक्षित होगये, जो कि अब ओसवाल कहलाते हैं। ___ जहाँ राजपताने के जैन चोरों ने युद्ध और राजनीति में साहस एवं बुद्धि का परिचय दिया है, वहाँ आबू आदि जैसे दुर्गम स्थानों पर मन्दरादि धनवाकर उन्होंने शिल्प-चातुर्यता का भी अधिकार प्राम किया है। इस मेशीनरीयग में भी बड़े इंजीनियर उन भव्य इमारतों के वनवाने में असमर्थ है, तब उन्होंने उस साधन हीन युग में उन मन्दिरों का निर्माण करके सफलता प्राप्त की है। . इसी प्रकार जब जान, माल, और आपरू की बाजी लगी हुई थी। उस युद्ध काल के दूपित और दुर्गन्धमय वातावरण में स्वच्छन्द और स्वतन्त्र स्वास लेना दूभर हो रहा था। नित्यप्रति धार्मिक स्थान धराशायी और पुस्तकालय भस्मीभूत किये जाते थे, तब ऐसी विकट परिस्थिती में रहत हुये भी उन जैनों ने अनेक प्रन्यों की रचना की है और प्राचीन परातन प्रन्यों.को सीने से लगा कर नागौर जैसलमेर आदि स्थानों पर सुरक्षित रक्खा है। .
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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