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________________ राजस्थान ... .... जहाँ वीरता मूर्तिमन्त हो हरती थी भूतल का भार । जहाँ धीरता हो पाती थी धर्म-धुरीण कण्ठ का हार ।। जहाँ जाति-हित बलि-वेदी पर सदा वीर होते बलिदान । जहाँ देश का प्रेम बना था सुरपुर का सुखमय-सोपान॥ जिस अवनी के बाल चन्द ने काटे बलवानों के कान । चमेकी जहाँ वीर बालाएँ रण-भू में करवाल समान ।' किए जहाँ के नृप-कुल-मण्डल ने कितने लोकोत्तर काम । जिस लीलामय रङ्ग-अवनि में उपजे नाना लोक-ललाम ॥ जिस के एक-एक रज-कण पर लगी राजपती की छाप । जिस का वातावरण समझता रण में पीठ दिखाना पाप। जिसके पत्ते मर्मर रख कर, रहे पढ़ाते प्रभुता-पाठ । जिसके जीवन-संचारण से हरित हुआ था उकठा काठ॥ -"हरिऔध' rers.
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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