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________________ ३१८ राजपूताने के जैन वीर मूर्ति ऋषभदेव (आदिनाथ ) की है। इसके दोनों पावों में एक एक मूर्ति खड़ी है । इनके सिवाय यहाँ पर और भी अनेक पाषाण. और पीतल की मूर्तियाँ विद्यमान हैं । परन्तु ये सब पीछे की बनी हुई प्रतीत होती हैं । हम ऊपर लिख चुके हैं कि मुख्य मन्दिर के चारों तरफ़ अनेक छोटे छोटे जिनालय हैं। इन पर के लेखों से प्रकट होता है कि इनमें की मूर्तियाँ भिन्न भिन्न समय में भिन्न भिन्न पुरुषों द्वारा स्थापन की गई हैं। मन्दिर के सामने हस्तिशाला: है । यह साढ़े पत्थर से बनाई गई है । इसने दरवाजे के सन्मुख विमलशाह की अश्वारूढ पंत्थर की मूर्ति बनी है । परन्तु चूने की लई ठीक तौर से न होने से उसमें भद्दापन आगया है । इस के मस्तक पर गोल मुकुट है। तथा पास ही में एक काठ का बना हुआ पुरुष छत्र 'लये खड़ा है । हस्तशला में पत्थर के बने 1 10 हुए १० हाथी खड़े हैं। इनमें ६ हाथी वि० सं० १२०५ ( ई० स० ११४९ ) फाल्गुण सुंदि १० के दिन नेढक, आनन्दक, पृथ्वीपाल, 'घरिक, लहरक और मोनक नाम के परुषों ने बनवाकर रक्खे थे। इन सबों के नामों के साथ महामात्य खिताब लगा है । बाक़ी के '४ हाथियों में से एक परमार ठाकुर जगदेव ने और दूसरा महामात्य धनपाल ने वि० सं० १२३७ ( ई०स० ११८०) आषाढ़ सुदि ८' को बनवाकर रक्खा था । तीसरा हाथी महामात्य धवल ने बन वाया था । इसका संवत् चूने के नीचे आजाने से पढ़ा नहीं जाता। तथा चौथे हाथी का सारा लेख चूने के नीचे दब गया है । यद्यपि पहले इन सब हाथियों पर पुरुषों की मूर्तियाँ बनी हुई थी। तथापि de
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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