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________________ अजमेर - परिचय २८७ होगया होगा । मन्दिर के चारों ओर परकोटा है, इस परकोटे का प्राचीनत्व और सरल गठन देख कर मेरा विश्वास है कि प्रथम भारत-विजेता गौरी का सुलतान वंश ही इसका निर्माता है। मंदिर के उत्तरीय भाग में सिंहद्वार और सोपानावलि (जीना) विद्यमान है । विशेष परीक्षा के द्वारा मैंने निश्चय कर लिया है कि मन्दिर जैनियों ने बनवाया है । प्रवेशद्वार के परकोटे को दीवार पर अरवी अक्षरों में कुरान की आयतें लिखी हैं। तोरण के ऊपर मैंने संस्कृत के अक्षर भी लिखे देखे । वह अरबी अतरों के साथ मिश्रित और विकृत हो गये हैं। मन्दिर की बनावट अति श्रेष्ठ और मनोहर है । तोरण देखने के पीछे जैनियों द्वारा वने हुये मूल मन्दिर को देखने के लिये मैं आगे बढ़ा । मन्दिर पुराने जैनमंदिरों के समान बना है। मन्दिर का भीतरी भाग खूब लम्बा चौड़ा है । तीन श्रेणियों में विभक्त रमशोक स्तम्भों के ऊपर छत स्थापित है। सम्पूर्ण स्तम्भ विशेप दर्शनीय और प्रशंसनीय हैं। कमरे के भीतर चालीस स्तम्भ विराजमान हैं, किन्तु यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सव के वेल घंटे का काम अलग अलग है। मेरा विश्वास है कि तुर्क लोगों ने भारतवर्ष से इस गठन प्रणाली को सीखकर यूरोप में प्रचार किया था ।" শ + टाड-राजस्थान प्रथम भाग द्वि० सं० २० ३ १ पृ०८३३ |
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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