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________________ २६६ राजपूताने के जैन-वीर नहीं । समय पर ही सत्र कार्य अच्छे लगते हैं । युवती - बस आपके कथनानुसार फैसला हो गया । कविता करना बुरा नहीं, किन्तु इस समय उसकी आवश्यकता नहीं । पृथ्वी - इसका तात्पर्य ?. युवती - यही कि आप क्षत्री हैं । भारतमाता को इस समय वीर-पुत्रों की आवश्यकता है । आप ही सोचलें यदि आज वीर राजपूत समस्या-पूर्ति में लगे रहें, तो फिर देश की समस्या को कौन हल करेगा ? पृथ्वी - तो तुम क्या चाहती हो ? युवती - यही कि देश सेवा के व्रत में केशरिया बाना पहन कर शत्रुओं का संहार करो। आज इनके अत्याचारों से भारतमाता रुदन कर रही है, स्त्री बच्चों की गर्दनों पर निर्दयता पूर्वक छुरी 'चलाई जा रही है, वीर ललनाओं का बलपूर्वक शील नष्ट किया जा रहा है। अतएव इस समय कविता करना योग्य नहीं । प्रताप का साथ दो, प्राणनाथ ! प्रताप जैसे बनो! कहते कहते युवती का गला रुँघ गया वह अब अपने को . अधिक न सम्हाल सकी । लज्जा, घृणा, मानसिक सन्ताप आदि ने उसे बोलने में असमर्थ कर दिया । वह अपने पति के पाँवों में पड़ कर फूट २ कर रोने लगी। युवती के रुदन में कुछ बेबसी का ऐसा अंश था, कि पृथ्वीराज का कठोर हृदय भी पिघल गया · और उत्सुकता से उसके दुःख का कारण पूछने लगे ।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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