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________________ राजपूताने के जैन-चीर वीर-नारी गवती ने क्रोध के वेग को रोक कर कहा- "कवीजी! उ कविता फिर भी रची जायगी, इस समय अपनी बहन की इज्जत बचाओ" यह कवि बीकानेर महाराज रायसिंह के भाई थे । जव बीकानेर नरेश ने अपनी लड़की अकवर को दी, तो इन्होंने उनका तीन प्रतिवाद किया और वे लड़ने के लिए तैयार हो गये। इस पर वे आगरे में नजर कैद कर लिये गये । इन्हें कविता करने का व्यसन था । अकबर बादशाह इनकी कविता चाव से सुनता था । हर समय इन्हें यही एक धुन रहती थी। इनका नाम पृथ्वीराज था। अन्यमनस्क भावसे बोले "क्यों क्या हुआ? प्राणप्रिये! इस समय मुझे क्षमा करो, मुझे एक समस्या पूर्ति करनी है, इसलिये..." यवती-(बात काटकर) तो साफ क्यों नहीं कहते, कि इस समय चली जा, नहीं तो कविता अच्छी न बन सकेगी। ।। पृथ्वी-अच्छा यही समझ लो। . . . युवती-मैं खूब समझ चुकी हूँ। यदि यही अकर्मण्यता न होती,तो आपकोइसप्रकार दासत्त्व वृत्तिस्वीकार नहीं करनीपड़ती। देश के ऊपर आपत्ति की घनघोर घटा छाई हुई है, सगी बहन का सतीत्त्व नष्ट हो रहा है और आप कविता करने बैठे हैं। धिकार है आपकी कविता को,फटकार है आपकी बुद्धिको, लानत है आपकी
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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