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________________ २९ राजपूताने के जैन-धीर देता था। यदि कोई दोष भी उससे बन जाता था और कोई उस . की प्रशंसा कर देता तो वह बड़ा प्रसन्न होता था और उसको बहुत इनाम देता था। उसने अपने बाप दादों के द्रव्य को यों ही व्यर्थ खर्च कर दिया और नये नये किलों के वनाने में सारी आमदनी लगा दी। कितना ही रुपया उसने भाटोंऔर चारणों को दे डाला। . कहा जाता है कि एकवार शंकरनाम के एक भाट ने उस की प्रशंसा में कुछ कवित्त बनाये थे और रायसिंह को उसके दिल्ली से लौटने के समय पढ़कर सुनाये थे । रायसिंह उनको सुनकर इतना प्रसन्न हो गया कि उदारता के आवेश में आकर अपने मंत्री को आज्ञा दीकि, इसभाटको खिलअत और एक करोड़ रुपयोंकाइनाम दिया जाय। इस आदेश को मंत्री ने ठीक नहीं समझा । उसने राजा के साथ बड़ी देरतक इस विषय पर वहस की, परन्तु राजाने इसपर इनाम को एक करोड़से सवा करोड़ कर दिया ! कहा जाता है कि एक करोड़ रुपया तो भाट को उसी दम दे दियागया और वानी के लिये राज्य की मालगुजारी गिरवी रखदी गई। सम्भव है कि यह बात + टाँक साहब के उक्त कथन की सत्यता निम्न नोट से और भी स्पष्ट हो जाती है: ......"यदि चारणों की बात मानें और बीकानेर के इतिहास को सत्य जाने तो, यह राजपूताने के कर्ण ही थे। इनका पहला विवाह महाराणा उदयसिंहजी की राजकुमारी जसमादे से हुआ था। जिसमें इन्होंने दस लाख रुपये त्याग के वाँटे थे। अब चित्तौड़ के ज़नाने महल में जाने लगे तो राणाजी की दासियों ने एक जीना दिखाकर कहा कि, जो कोई इसकी एक एक पैड़ी पर एक-एक हाथी दे,वह. से होकर ऊपर जा सकता है, नहीं तो दूसरा रास्ता और भी है। महारान उसी. से ऊपर गये और गिनी तो ५० पैड़ियां थीं। दूसरे दिन दरवार करके ५०
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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