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________________ राजपताने के जैनचीर याई भी अध्यात्म-प्रेमी रहे हैं । इनके यहाँ षट् द्रव्य (१ जीव, २ पुद्गल, ३ धर्म,४ अधर्म,५ आकाश और ६ काल) का विषद् विवेचन मिलता है । जैन-आचार्यों ने जिस विषय पर भी लिखा है वह अपने ढंग का अनूठा और बेजोड़ है, पर अध्यात्म पर सबसे अधिक लिखा है । जैनाचार्यों ने युद्ध आदि रागात्मक विषयों के वर्णन में हिन्दू-मन्थकारों की अपेक्षा और भी अधिक उदासीनता रक्खी है । पौराणिक काल को जाने दीजिये,अशोक का प्रतिद्वन्दी सम्राट् खारवेल जोकि प्रसिद्ध जैनधर्मी हुअा है,उसके सम्बन्ध में जैनप्रन्थों में एक शब्द भी नहीं मिलता। इसी प्रकार मान्यखेटका राठौड़ वंशी राजा अमोघवर्ष भी जैनी हुआ है और यह प्रसिद्ध अन्यकार जिनसेनाचार्य का शिष्य था, फिर भी स्वयं जिनसेनाचार्य ने अथवा और किसी ने इसके विषय में कुछ नहीं लिखा । ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । यदि इन राजाओं के सम्बन्ध के शिलालेख आदि न मिलते तो आज इतिहास के पृष्ठों में इनका अस्तित्व तक न होता। फिर भी जैनधर्म के शिलालेखों, स्थविरावलियों, पटावलियों और प्रन्थों में भारतवर्ष के इतिहास की सामग्री विखरी हुई . + द्वाश्रयकाव्य, परिशिष्टपर्व, कीर्तिकौमुदी, वसन्तविलास, धर्मा युदय, वस्तुपाल-तेजपाल-प्रशस्ति, सुकृतसंकीर्तन, हग्मीरमद मदन, कुमार विहार-प्रशति, कुमारपाल-चरित्र, प्रभावक-चरित्र, प्रवन्धचिन्तामणि, श्रीतीर्थकल्प, विचारश्रेणी, स्थविरावली, मच्छप्रबन्ध, महामोहपराजय नाटक, कुमुदचन्द्र प्रकरण, प्रबन्धकोष, तीर्यमालाप्रकरण, उपदेशसप्ततिका, गुर्वावलि, महावीर प्रशरित, पंचाशतिप्रबोध सम्बन्ध, सोमसौभाग्यकाव्य, गुणगणरत्नाकरकाव्य, प्रवचनपरीक्षा, जगद्गुरुवान्य,
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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