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________________ २३४ . राजपूताने के जैन-चीर पर नियुक्त था, वह भी इनके साथ था। . शुद्ध हृदय से शुभेच्छ और जानिसार होने पर भी जब उक्त चार सामन्त और इन्द्रराज सिंघवी "द्रोही" जैसे घृणित और महापातक लाञ्छन लगाकर पृथक किये गये तत्र लाचार यह लोग चुपचापं किले के वाहर पड़ी हुई शत्रु-सैन्य से श्री मिले। . मारवाड़ राज्य के प्रलोभन में जयपुर-नरेशं जगतसिंह अपनी सैन्य को लेकर ५ माह तक जोधपर के किले को धेरै हुए पड़े रहें। फिर भी वह इतने लम्बे समय में मारवाड़ के राज्यासन को प्राप्त न कर सके.। अंतः इनको अपने पक्ष में मिलता हुआ देख कर जगतसिंह को और उसके उन अनुयाइयों को जो मारवाड़ी होते हुए भी मारवाड़ पर जयपुर-नरेशं को चढ़ाकर लाये थे, अपार हर्ष हुआ। परं, इनके मिलने में और औरों के मिलने में पृथ्वी आकाश का अन्तर था! .. यह अपमानित होने पर भी विभीषण, जयचन्द और शक्तंसिंह की भांति प्रतिहिंसा की आग से अपने हो घरको जलाने के लिए उन्मत्त नहीं हो उठे थे!. व्यक्तिगत मनमुटाव के कारण वह अपनी मातृभूमि को सदैव के लिये परतन्त्रता की बेड़ी में जकड़वा देने को प्रस्तुत नहीं थे, और न वह अपनी प्रतिहिंसा की आग को निर्दोष व्यक्तियों के रक्त से बुझाने को तैयार थे । यदि ----- -~ ~arimminimum + भरयो विभीषणपंजतें, यह भारतं ब्रह्माण्ड ! क्यों न होय गृह भेद त गृह गृह लंकाकाण्ड "-वियोगीहरि
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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