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________________ २२० राजपूताने के जैनवीर दिनों में पशुवध न करने का आज्ञापत्र जारी किया । इसमें सन्देह नहीं कि भण्डारियों का पूर्वज राव लाखा एक महापुरुष था । वीरता और देशभक्ति में कोई उसका सानी न था । उसने अणहिलवाड़ा से कर और चित्तौड़ के राजा से खिराज वसूल किया था। बारहवीं पीढ़ी में उत्पन्न अलनदेव ने कुछ काल राज्य करके इस संसार को असार, शरीर को अपवित्र समझकर, अनेक धर्मशास्त्रों का अध्ययन करके वैराग्य ले लिया । इन्होंने ही महावीर स्वामी के नाम पर मन्दिर उत्सर्ग किया और वृत्ति निर्धारित की और यह भी लिखा कि "यह घन सुन्दरः गाळा ( ओसवाल जैनियों की ८४ शाखाओं में से एक) लोगों की वंश परम्परा को बराबर मिलता रहे । जनतक सुन्दरंगाचा लोगों के वंश में कोई जीवित रहेगा तबतक के लिये मैंन यह वृत्ति निर्द्धति की है । इस का जो कोई खामी होगा मैं उसका हाथ पकड़ कर कहता हूँ कि यह वृति वंश परम्परा तक चली जावै । जो इस वृत्ति को दान करेगा वह साठ सहस्र वर्ष तक स्वर्ग म बसेगा और ओं इस वृत्ति को तोड़ेगा वह ' साठ सहस्र वर्ष तक नर्क में रहेगा । " सं० १२२८ में यह दानपत्र लिखा गया). प्राग्वंशीय धरणीधर - ओसवाल के पुत्र करमचन्द इनके मंत्री थे।" ६ (टा० रा० प्रयमभाग द्वि० सं० अ० २७ पृ० ७४७ ) - गोयलीय † इस की वीरता के सम्बन्ध में टाडराजस्थान में लिखा है: "जिस समय राज़नी वादशाह भारतवर्ष लूटने के लिये आया, तब वह चौहान जाति की प्रधान बासभूमि अजमेर पर अधिकार करने के लिये गया। वहाँ चौहान लोगो. ने उचित शिक्षा देकर इसे युद्ध में परास्त और घायल किया। इस लिये वहाँ से भागकर नादौल होता हुआ: सोमनाय गया। नादौल के अधिकारी लाक्षा (लखमसी) .. ने उसके साथ बड़ी-बीरता से युद्ध किया । यही लाक्षा उस समय 'चित्तौड़ के अधीश्वरों से कर लेता था। इसके समय में जैनधर्म का विशेष प्रमुखं रहा।"" (टा० रा० प्र० मा० द्वि० सं० २०२७ पृ० ७४८) - गोयलीय
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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