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________________ १४० राजपूताने के जैन-वीर वि० सं० १९०७ ( ई० स० १८५० ) में बीलख आदि की पालों के भीलों और वि० सं० १९९२ ( ई० स० १८५५) में पश्चिमी प्रान्त के काली वास आदि के भीलों को सजा देने के लिये शेरेसिंह का ज्येष्ठ पुत्र मेहता सवाईसिंह भेजा गया, जिसने उनको सख्त सजा देकर सीधा किया । वि० सं० १९०८ लुहारी के मीनों ने सरकारी डाक लूट ली, जिसकी गवर्नमेन्ट की तरफ से शिकायत होने पर महाराणा सरूपसिंह ने उनका दमन करने के लिये मेहता शेरसिंह के पौत्र ( सवाईसिंह के पुत्र) अजीतसिंह को, जो उस समय जहाजपुर का हाकिम था, भेजा और उसकी सहायता के लिये जालंधरी के सरदार अमरसिंह शक्तावत को भेजा । श्रजीतसिंह ने धावा कर छोटी और बड़ी लुहारी पर अधिकार कर लिया । मीने भाग कर मनोहरगढ़ तथा देवका खेड़ा की पहाड़ी में जा छिपे, पर उनका पीछा करता हुआ, वह भी वहाँ जा पहुँचा । मीनों की सहायता के लिये जयपुर, टोंक और वन्दी इलाकों के ४-५ हजार मीने भी वहाँ आ पहुँचे । उनके साथ की लड़ाई में कुछ राजपूत मारे गये और कई घायल हुये, जिससे महाराणा ने अपने प्रधान मेहता शेरसिंह को अलग कर उसके स्थान पर मेहता गोकुलचन्द को नियत किया, परन्तु सिपाही विद्रोह के समय नीमच की सरकारी सेना ने भी बाग़ी होकर छावनी जलादी और खजाना लूट लिया । डा० मरे आदि कई अंग्रेज यहाँ से भागकर मेवाड़ के सुन्दा गाँव में पहुँचे । वहाँ भी बाग़ियों ने उनका पीछा किया। कप्तान शावर्स
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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