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________________ मेवाड़ के वीर १३३ में जा पहुँचे । चुण्डावत सरदार की उस मूर्ति देखकर राणाजी सहम गये, तब भी वे हँस कर बोले:-"कहिये शालम्बा सरदार ! इस समय कैसे पधारे ?” राणा अमरसिंह के इस व्यंग भरे प्रश्न से चुण्डावत सरदार कुछ कट से गये, वह कड़क कर बोले: देश पर आपत्ति की धनघोर घटा छाई हुई है, यवनेश अपनी असंख्य सेना लेकर मेवाड़ पर चढ़ आया है। फिर भी आप पूछते हैं कि "इस समय कैसे पधारे?" विजेताओं के अत्याचार से लाखों युवतियाँ विधवा हो जायेंगी, उनका बल पूर्वक शील नष्ट किया जायगा। हमारे धार्मिक मन्दिर पृथ्वी में समतल कर दिये जॉयगें । मेवाड़ की कीर्ति लुप्त हो जायगी। सब कुछ जानते हुये भी मेवाड़-नरेश ! यह अनभिज्ञता कैसी"? चुण्डावत-सरदार के यह मर्मान्तक वाक्य राणाजीके हृदय में लगे तो, किन्तु व्यर्थ ! उनकी काम-वासना ने, विद्वता, वीरता, स्वाभिमान, मनुष्यता सभी पर पर्दा डाल रक्खा था। वे सरदारको टालने की गरज से बोले-'तब मैं क्या कह " __ "आप क्या करें ! राणा संग्रामसिंह ने क्या किया था? राणा लक्ष्मणसिंह के बारह पत्रों ने क्या किया था ? वीर जयमल और पत्ते ने क्या किया था और आपके यशस्वी पिता ने क्या किया था? जो उन्होंने किया वही आप कीजिये । जिस पथ का अवलम्बन उन्होंने किया, उसी का अनुसरण आप भी कीजिये" . . "मैं व्यर्थ का रक्त-पात करके अपने हाथों को कलंकित नहीं करना चाहता"।
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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