SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेवाड़ के वीर १२९ मोक्ष जाना चाहता है, वह न तो मोक्ष पहुँचता है न पहुंच ही सकता है । त्रिशंकु की तरह उसको बीच में ही लटकना पड़ता है । यदि मेरे नर्क में रहने से भी मेरा देश स्वतंत्र हो सकता है, तो मैं नर्क की दुःसह वेदना सहन करने को प्रस्तुत हूँ । बोलो, बोलो क्या कहते हो, शपथ करो कि इन विदेशियों का विध्वन्स करके मातृ-भूमि को स्वतंत्र कर देंगे ।" सामन्त और सरदार व्यग्र हो उठे, राणाजी की यह अभिलाषा क्योंकर पूर्ण होगी ? जीवन भर लड़ते हुये भी जिसे अपना न कर सके, उसे श्रव कैसे स्वतंत्र कर सकेंगे ? तब भी सन्तोष के लिवे आश्वासन देते हुये वोले :- "भारत-सम्राट् ! आपकी यह अभिलाषा वीरोचित है। आप विश्वास रखिये श्री बापजी राव ( युवराज अमरसिंह) आपकी इस अंतिम कामना को श्री एकलिंग जी की कृपा से अवश्य पूर्ण करेंगे ।" वीर-शिरोमणि महाराणा प्रताप चुटीले सांप की तरह फुंफकार कर बोले :- "अमर चितौड़ को तो क्या स्वतंत्र करेगा ? वह रहे सहे मेवाड़ के गौरव को भी खो बैठेगा। उसके आगे मेवाड़ की पवित्र भूमि मलेच्छ के पाद- प्रहार से कुचली जायगी ।" समस्त सरदार एक स्वर से बोल उठे "अन्न दाता ! ऐसा कभी न होगा ।"." दीप निर्वाण होने के पूर्व एक बार प्रज्वलित हो उठता है । उसी प्रकार राणाजी शक्ति न रखते हुये भी आवेश में कहने लगे:"मैं कहता हूँ ऐसा अवश्य होगा। युवराज 'अमरसिंह हमारे पित And e
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy