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________________ ११२ राजपूतों के जैन-वीर ` किया। इस भयंकर युद्ध में मेवाड़ के वीरों के सहकारी राठौर और खीची वीरों की अनुकूलता से तथा उत्साह के साथ उनके सम्मलित होने से अजीमकी सेना को भयंकररूप से वीरवर दयालदास ने दलित करके अन्त में परास्त कर दिया, पराजित अजीम प्राण बचाने के लिये रणथम्बोर को भागा । परन्तु इस नगर में आने से पहिले ही उसकी बहुत हानि हुई थी । कारण कि विजयी राजपूतों ने उसका पीछा करके बहुत सी सेना को मार डाला । जिस अजीम ने पहले वर्ष चित्तौड़ नगरी का स्वामी बनकर अकस्मात् उसको अपने हाथ में कर लिया था, आज उसको उसका उचित फल दिया गया +।"* वीरवर दयालदास के सम्बन्ध का एक संस्कृत - लेख बड़ौदा के पास छाणी नामक ग्रामं के जैन मन्दिर में एक विशाल पाषाण प्रतिमा पर खुदा हुआ मिला है, जो कि मुनि जिनविजयजी द्वारा सम्पादित "प्राचीन जैन - लेख संग्रह" द्वितीय भाग पृ० ३२६-२७ में उद्धृत हुआ है। जिसका भाव यह है कि संवत् १७३२ शाके १५८७ वैशाख शुक्ल सप्तमी को मेवाड़ नरेश राणा राजसिंह के मंत्री ओसवाल वंशीय सीसोदिया गोत्रोत्पन्न संघवी दयालदास ने इस मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई। इस शिलालेख में दयालदास के वंश-वृक्ष का इस प्रकार उल्लेख मिलता है : --- + टाड्रराजस्थान द्वि०सं०अ०] १६- पृ० ३९७-९८ ॥ *
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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