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________________ ११० राजपूताने के जैन चीर नीय मानी गई है, परन्तु जब बच्चा पेट में टेढ़ा होकर अटक जाता है, तवं उसको काटकर निकालना ही धर्म हो जाता है। वस्तु के प्रत्येक पहलू का देश, काल, पान, अपात्र की योग्यता से विचार करना पड़ता है। जो आदर्श महात्माओं को उत्तरोत्तर उन्नतिशिखिर पर चढ़ाने वाला है, वहीं आदर्श साधारण व्यक्तियों को अपने ध्येय से औंधे मुँह नीचे पटक देने वाला है ......": .. कहते कहते वीर दयालदास क्रोध से तमतमा उठा और वह.. गर्म निश्वासं छोड़ने लगा। मानों समस्त पीड़ितो की मर्मभेदी . आहे उसके ही शरीर में आर्तनाद कर रही थी दयालदास ने : अपनी भुजाओं को तोला, तलवार को गौर से देखा और घोड़े पर सवार होकर जननी जन्मभूमि के ऋण से उऋण होने के लिये प्रस्थान कर दिया। वीर दयालदास की इस रण-यात्रा का वृतान्त' मान्य टॉड्साहव के शब्दों में पढ़िये:--- ___राणाजी के दयालदास नामक एक अत्यन्त साहसी और कार्य-चतुर दीवान थे; मुगलों से बदला लेने की प्यास उनकै हृदयः में संर्वदा प्रज्वलित रहती थी। उन्होंने शीघ्र चलने वाली घड़सवार । सेना को साथ लेकर नर्मदा और वितवा नदी तक फैले हुए मालवा राज्य को लूट लिया, उनकी प्रचंड भुजाओं के बल के सामने कोई भी खड़ा नहीं रह सकता था, सारंगपुर, देवास, सरोज, मांडू, उज्जैन और चन्देरी इन सब नगरों को इन्होंने वाहु-: . चल में जीत लिया, विजयी दयालदास ने इन नगरों को लूट कर . हाँ पर जितनी यवन.सेना थी, उसमें से बहुतसों को मार डाला
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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