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________________ राजपुताने के जैन-चीर फेरे अथवा कालचक्र की महिमा से भामाशाह के वंशज आज मेवाड़ के दीवानपद पर नहीं हैं और न धन का बल ही उनके पास रह गया है । इसलिये धन की पूजा के इस दुर्घट समय में उनकी प्रधानता, धन-शक्ति सम्पन्न उनकी जाति विरादरी के अन्य लोगों को अखरती है। किन्तु उनके पुण्यश्लोक पूर्वज भामाशाह के नाम का गौरव ही ढाल वनकर उनकी रक्षा कर रहा है। भामाशाह के वंशजों की परम्परागत प्रतिष्ठा की रक्षा के लिये संवत् १९१२ में तत्सामयिक उदयपुराधीश महाराणा सरुपसिंह को एक आज्ञापत्र निकालना पड़ा था, जिसकी नकल न्यों की त्यों इस प्रकार है: . श्री रामोजयति , श्रीगनेशजीप्रसादात् श्रीएकलिंगजी प्रसादात् भाले का निशान [सही] स्वस्तिश्री उदयपुर सुभसुथाने महाराजाधिराज महाराणाजी श्रीसरुपसिंघजी आदेशात् कावड्या जेचन्द कुनणो वीरचन्दकस्य अमं थारा बड़ा वासा भामो कावड्यो ई राजन्हे साम ध्रमासुकाम चाकरी करी जी की मरजाद ठेठसू य्या है म्हाजना की जातम्हे वावनी त्या चौकाकोजीमण वा सीगपूंजा होवे जीम्हे पहेलीतलक । थारे होतो हो सो अगला नगर सेठ वेणीदास करसो कर्यो अर . 'ततलक थारे नहीं करवा दीदो अवारू थारी सालसी दीखी कर सेठ पेमचन्द ने हुकम की दो सो वी भी अरज करी
SR No.010056
Book TitleRajputane ke Jain Veer
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAyodhyaprasad Goyaliya
PublisherHindi Vidyamandir Dehli
Publication Year1933
Total Pages377
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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