SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि वह पूरा जिद्दी या नास्तिक निकला तो वात दूसरी हे। नहीं तो समझा कर रहेगे, ऐसी आपको आशा है। आप कहेगे--- ___"धर्म का लाभ, 'मन मे उत्तम भावो की उत्पत्ति' को ही कहते है। धर्म कोई दिखाई देने बाती वस्तु नही है जो तेरा हाथ पकडकर दिखाई जा सके कि तेरे को मिलने पर भी तू 'ना' कैसे कह रहा है।" मुनि महाराज के स्थान पर जाने से, उत्तम भाव तेरे मन में उत्पन्न हुए या नहीं, उसको तू स्वय ही समझ सकता है। इस विषय मे तेरे कहने से ही हमें कुछ मालूम पडेगा। चाहे तू झूठ बोले या सत्य, सब तेरी ईमानदारी ही पर निर्भर है। अव तू अपने भावो को परख । मनि महाराज के सामने जाते ही उनके गुण याद आते है या नहीं? उनको देखकर यदि ऐसी भावना मन में उत्पन्न हो-"कैसे त्यागी, कैसे सयमी, कितने निर्मोही। अहा ! कितना परिपह (कण्ट) सहन कर रहे है। ससार के सुखो की विलकुल इच्छा नहीं । काम और क्रोध को जीतने वाले हे मुनि ! आप धन्य हैं ! जो भव रुपी अथाह समुद्र को तैर कर पार कर रहे है। कोई आप को अवर्णवाद भी वोले तो भी आप क्षमा सहित समभाव रखते है। आपके क्षमा गुण की कहाँ तक प्रशसा करे। समता रस का पान करने वाले हे गणिराज | आप धन्य है | धन्य है । इत्यादि-२" ऐसे विचार आने से दिल मे हलकापन अनुभव होता है या नहीं? मन मे आनन्द उत्पन्न होता है या नही ? मन मे कोमलता पैदा होती है या नहीं? उनके निर्मल गुणो मे हमारी रुचि पैदा होती है या नही ? ऐसे भाव मन में आने के बाद हम उन्हे नमस्कार करते है तो उस नमस्कार में कितनी श्रद्धा, कितना विनय होता है ? उत्तर दे ऐसी स्थिा मे 'हमे धर्म का लाभ मिला ऐसा माने या नहीं? तब वह फिर कहता है--"किसी के गुणो को याद करके यदि लाभ उठाया जा सकता है, तो ऐसा लाभ गुणो को याद करके घर पर भी उठाया जा सकता है। फिर यहाँ तक आने की क्या जरुरत ? इसमे मुनि महाराज ने हमारी कोई सहायता नहीं की। हमने ही गुणो को याद किया और हमने ही गुणो की अनुमोदना की। सारे काम हमने ही किये। घर पर भी हम ही करने वाले होगे। भावना का ऐसा लाभ तो घर पर भी मिल सकता है। फिर यहाँ तक आकर, आने-जाने की हिंसा करने की और समय नष्ट करने की क्या आवश्यकता?" पाठकवृन्द अब आपने समझ लिया कि वह सीधे रास्ते पर आ गया है। आप उससे शीघ्र प्रश्न करेंगे----
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy