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________________ ऐसे अवलम्वनो के विना ही यदि जीवित रहना बतलाते और मोक्ष प्राप्ति का लाभ दिला देते तव तो जरूर दुनिया भी शाबाशी देती कि वाह रे महारथियो । जीना तो तुमने सिखाया, शुद्ध उपाय तो तुमने वतलाये जो आज हम ऐसी हिंसा को छोड कर जी रहे हैं। यदि अन्य शुद्ध अवलम्बन नही वतला सकते है तो आपके ऐसे उपदेश कोडी की कीमत भी नही रखते। देह का पोषण पाप नहीं :-बिना ऐसे अवलम्वनो के देह खडी नही रहती और विना इस देह के धर्म उदय में नही आता।यानी इस अपेक्षा से ऐसे अवलम्बनों को अपनाना धर्म का ही पोषण है,इसमें जरा भी संदेह नहीं। चारित्र्य प्राप्तिके बाद जब ऐसे अवलम्बनो की जरूरत रहती है तो चारित्र्य तक पहुंचने में इनकी जरूरत के सम्बन्ध में कुछ कहने की जरूरत ही नहीं रहती। आत्मा, आत्मा होनेपर भी इस मनुष्य देह के सहारे के बिना कर्मों से मुक्त नहीं हो सकती। तब देह का भी मूल्य समझा जाना चाहिए। इसे खड़ी रखना पाप नही । पाप की तरफ ,झुकाना पाप है और धर्म की तरफ झुकाना धर्म । यह आत्मा का निवास स्थान है। यह आत्मा की पूर्व अर्जित सपत्ति है। यह तो आत्मा की संसार-समुद्र तैरने की नौका है। यह आत्मा का वह तीक्ष्ण शस्त्र है जिससे उसे अपने कर्मरूपी बंधनो को शीघ्र विवेक पूर्वक काटने हैं। यही कारण है कि इस देह के लिए तो देवता तक तरसते हैं । हम भी इसे प्राप्त करने के लिए भव-भव में तरसते रहे है । इसे गदी मत वतलाइये, गदगी से बचाइये। इसे कमजोर मत समझिये, अधिक सबल और सतेज बनाइये । इसे रखना पाप मत समझिये धर्म प्राप्ति का स्वच्छ आधार मानिये। इसे निकम्मी मत बतलाइये, सत्पथ पर द्रुतगामी वन सके ऐसी चुस्त बनाइये। शरीर की प्रतिपालना आत्मा की ही सेवा है। इससे उचित सेवा लीजिए। आगे चलकर शुद्ध आत्म-रमणता इसी देह के ही सहारे प्राप्त होती है। व्यावहारिक कार्यों में हिंसा वतलाना अनुचित :-निवृत्ति-मार्ग की तुलना में प्रवृत्ति मार्ग को भिन्नताओ को देखकर उनमें "पाप है, पाप है, हिंसा है, हिसा है" ऐसा कहना व्यावहारिकता का स्पष्ट उल्लघन है। ऐसा कहने का परिणाम वडा अहितकर हुआ है। साराश यह निकला कि अधिकाश वाजिव कामो के करने से लोगो का मन स्वत. खीच गया। पाप सुनने के वाद । भला पाप का कार्य कौन करे। पूजा करने में पाप, स्कूल बनाने में पाप, अस्पताल बनाने में पाप, 'कुँआ खुदवाने में पाप, वाप रे वाप! पाप ही पाप
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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