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चाहिए। वे तो यही फरमाते - “ जव साधु को ही अपना प्राण त्यागना स्वीकार है पर किमी जीव को मारना स्वीकार नही तव इतनी हिंसा करके साध्वी को चचाने का तो उनके लिए कोई प्रश्न ही पैदा नही होता । नदी में उतरने से तो अपकाय जीवो की हिंसा के साथ-२ मेढक, मछली आदि सकाय जीवो की भी विराधना हो सकती है । फिर साब्त्री का सघट्ठा (स्पर्श) और वह भी भीगी हुई अवस्था में । इसपर भी साध्वी बचे या न बचे । साघु अवस्था में उन्हें कोई नदी तैरनी तो सिखाई नही जाती। इसलिए जैन साधु के लिए ऐसी मान्यता स्थापित करना मरासर गलत है, मिथ्या दृष्टि है, पाखण्ड है । पर किया क्या जाय? परमात्मा ने ही सूत्र में ऐमी आज्ञा दे रक्ती है । यहाँ उनको "चूके" कहने की भी कोई गुजाइश नही | यह है जिनेश्वर भगवान की आज्ञा । भव उन्हे अपनी तथाकथित मान्यता को इस आज्ञा से मिला लेना चाहिए । प्रत्यक्ष जीव मारे जां और फिर भी हिंमा न समझो जाय ? यह कैसी प्रवचना है ?
सतार जोवो का सागर :-- -- लोगो के मनो में अरुचि और घृणा उत्पन्न करा, उन्हें मूर्ति पूजा से हटाने के लिए द्रव्यो के प्रयोग को इन महानुभावो
हिंसायुक्त तो बतलाया पर उन्हें यह ध्यान नही रहा कि जिसे वे बुरा बतला रहे हें अपने अच्छे के लिए उमे ही वे जोरो से अपनाये बैठे है और अपनाये जा रहे हैं । अरे । जल मे रही हुई मछली क्या जल के स्पर्श से अछूती रह सकती है ? अलग होकर क्या लाभ में रहेगी ? भाग्यशाली ! श्रदारिक शरीर की रचना को तो समझने का प्रयास करते ।
दया के अवतार -- जिनकी दसो अगुलियो के दसो नखो में ऐसे जीवीका कलेवर फँसा पडा हो, जिनके बत्तीसो दाँतो की रग-२ में ऐसे जीवो का कलेवर चौवीमो घटे सडा करता हो, जिनके हाड़, मास और रक्त का एक- २ कण ऐने ही जीवो के कलेवर में बना हो, जिनकी पेट रूपी भट्टी ऐसे ही जीवो के कलेवर का अर्क निकालने के लिए निरतर घवका करती हो और यहाँ तक कि जिनके प्रत्येक श्वासोच्छवास से ऐमे ही जीवो के कलेवर की सत्यानाशी दुर्गन्ध हर समय निकला करती हो, उनसे में विनय पूर्वक पूछता हूँ कि हे परमात्मा के पाट विराजने वाले दया के अवतार | आपने यह उपदेश देना कैसे उपयुक्त समझा क्या ऐसे अवलम्बन के बिना भी किसी की देह खडी रह सकती है ? शाप्त होने वाले उचित लाभ मिल सकते हैं ? यदि नही तो यह उपदेश देहधारियो "के उपयुक्त नही है । "इसको छोड़ कर उल्टे वे और अधिक घाटे ही में रहेंगे ।
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