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________________ इसके कि बडा और सुन्दर मदिर बनाने के लिए बाहर के दूसरे भाइयो से सहायता लें। इस तरह मूल्यवान मदिर वनाना उचित नहीं। मदिर कैसा भी क्यो न हो, काम तो मूर्ति ने है । मूर्ति बडी हो तो क्या, छोटो होतो क्या? धातु की हो तो क्या, पापाण की हो तो क्या ? मूर्ति के मूल स्त्प में कहीं भी कोई अन्तर नही होता। परमात्मा की प्रत्येक मूर्ति बडी सौम्य होती है। फिर हमारे लिए कमी ही क्या ? क्यो किमी के आगे जाकर हाथ पसारें और दीन बने ? माग-माग कर लाना तो उनके माय हमारी जवरदस्ती भी हो सकती है। इस तरह के चदो मे वे ऊब सकते है । हमारे कारण,हमारे किनी भी भाई के मन मे जरा भी सकाच या क्लेग न हो हमे वरावर यही ध्यान रखना चाहिए। उचित यह है कि प्रत्येक गामवामी अपने मदिर की आमदनी में से कुछ वचाकर अपने तीर्थराजो को नहायता भेजा करे पर देखते यह है कि आजकल हम गाव वाले ही, तीयों के मामने,अपने ग्राम के मन्दिर की मरम्मत के लिए हाथ पमारते रहते है। कश्यो की धारणा है कि जव तीयों में पैसा व्यर्थ पड़ा हो, उसका दुरुपयोग होने लगा हो या नप्ट होने की स्थिति उत्पन्न हो गई हो तो अच्छा यही है कि अगक्त गावो के मदिरो के जीर्णोद्वार मे लगा डाले। हमारे विचार से इन तरह नहायता देना या लेना हानिप्रद होने के कारण इस धन को हमे देवगत या राजगत मकट के समय और वह भी मिर्फ उधार रूप में ही लेने के सिवाय साधारण अवस्था में लेना ही नहीं चाहिए,चाहे तीर्थ का धन नष्ट होता हो या गाव का मदिर । हमें यही सोचना है कि हमारी यह मागने की स्थिति क्यो उत्पन्न हो गई ? इस तरह हम अपने तीर्थों को ही भिखारी बना डालेंगे। आज तीर्थों की सहायता मे मदिर खडा रख लेंगे,कल तीर्थों मे ही धन न रहा तव ? यदि आगे मभल जाने का आश्वासन देते है तो वह भी गलत है। इतने वर्षों में हम क्यो नही सभल पाये ? विचारना यही है कि आज हम सहायता मागने की इस स्थिति में क्यो पहुँच गये ? तीर्थ दूमरे तीर्थों की सहायता कर सकते है पर ग्राम-मदिरो को सहायता पहुंचाना अव्यावहारिक लगता है। बच्चे के सयाना होने के बाद, दूसरो की महायता पर जीना, चाहे वह अपने माता-पिता की सहायता ही क्यो न हो, उसकी आन, मान और शान के खिलाफ है। पूर्व मे मदिर अधिक वने हो, बाद में गाव छोटा पड़ गया हो और अव गाव १९१
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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