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जैनशासन
अपौरुपेय सिद्ध करनेमे एडीसे चोटी तक पसीना बहाया करते थे। इस तरह शब्दको पुद्गलकी पर्याय माननेपर अनेक पुरातन भारतीय दार्शनिकोकी भान्त धारणाएँ धराशायी हो जाती है।
पुद्गलकी अचिन्त्य शक्ति जैन सन्तोके प्रकृतिके सूक्ष्म अध्ययनका परिणाम है। पार्थिव पत्थरका कोयला अग्निरूप परिणत होते देखा जाता है, सीपके आधारको पाकर जलबिन्दुका पार्थिव मोतीरूपमे परिणमन होता है। इस प्रकार विचित्र पौद्गलिक परिणतिको हृदयगम करते हुए दर्शन शास्त्रकी भूल-भुलैयासे मुमुक्षुको अपने मस्तिष्ककी रक्षा करनी चाहिए। ___ इस पुद्गलसे सम्बद्ध जीव जगत्मे अगणित रूप धारण करता है। ज्ञान और आनन्दस्वरूप आत्माको पौद्गलिक शक्तिया ही इस शरीररूपी कारागारमे बन्दी बना अपनी विचित्र शक्तिका प्रदर्शन करती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वृक्ष, पवन आदि शरीरोको धारण कर यह जीव पृथ्वी आदि नामसे पुकारा जाता है-तत्त्वत सब आत्माएँ समान है। यह पुद्गलको पोशाक ही उनमें पार्थक्यकी प्रतीति कराती है। पृथ्वी, जल आदि रूपमे पुद्गलके निमित्तसे जीवकी परिणति जानकर तथा उसका यथार्थ रहस्य न समझ कुछ शोधक विद्वान्' यह विचित्र धारणा कर बैठे कि जैनियोने सपूर्ण पृथ्वी, जल, पवनरूप स्वतन्त्र एक-एक जीवात्मा स्वीकार किया है । उन्हे मालूम होना चाहिए कि पापाण, मृत्तिका, जल, हिम, अग्नि आदिमे अनन्त विकास-शून्य आत्माओका सद्भाव जैन दार्श
1 "This doctrine is entirely misunderstood by oriental scholars, who go to the extent of attributing to Jain Philosophy a primitive-doctrine of anımism, that carth, water, air, etc hare their own souls"
Prof. A Chakravarty in the 'Cultural Heritage of India'-P. 202.