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विश्व-स्वरूप
वह वाष्प द्रव और दृढ पदार्थ बन चला, उसका ही एक अंश हमारी पृथ्वी है।" सचेतन जगत्के विषयमे कल्पनाका आश्रय लेनेवाले यह पश्चिमी विद्वान् कहते है कि 'अभीवा' नामक तत्त्व विकास करते हुए पशु-पक्षी, मनुष्य आदि रूपमें प्रस्फुटित हुआ। एक ही उपादानसे वननेवाले प्राणियोकी भिन्नताका कारण डारविन अकस्मात्वादको बताता है, किन्तु ले मार्कका अनुमान है कि बाह्य परिस्थितियोने परिवर्तन और परिवर्धनका कार्य किया है, जिसमे अभ्यास, आवश्यकता, परम्परा आदि विशेष निमित्त बनते हैं। विकास सिद्धान्तके महान् पण्डित डारविन महाशयने ही यह नवीन तत्त्व खोजकर वताया, कि मनुष्य वन्दरका विकास-युक्त रूप है । प्रतीत होता है कि यूरोपियन होने के कारण डारविनको सन्तुलनके लिए अपने देशवासी वन्दर और मनुष्योके विषयमे चिन्तना करनी पडी होगी। इसीलिए, विनोद-शील शायर अकवर कहते है
"बकौले डारविन हजरते आदम थे बुजना (बन्दर)। ___ हो यकी हमको गया यूरोपके इंसा देखकर ॥"
यह बताया जा चुका है कि विश्वमें सचेतन-अचेतन तत्त्वोका समुदाय विश्व-विविधता तथा ह्रास अथवा विकासका कार्य किया करता है। आत्मतत्त्वके स्वतन्त्र अस्तित्वके विषयमे पर्याप्त विचार हो चुका, अत' जडतत्त्वके विषयमे विशेष विचार करना आवश्यक है। जिस जड़-तत्त्वका हम स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु तथा कर्ण इन पाच इन्द्रियोके द्वारा ग्रहण अथवा उपभोग करते है, उस जडतत्त्वको जैन दार्शनिकोने 'पुद्गल' सज्ञा दी है। जिसमें स्पर्श, रस, गन्ध तथा वर्ण पाये जाते है उसे पुद्गल ( Matter ) या मैटर कहते है। साख्य दर्शनके शब्दकोशका 'प्रकृति' शब्द पुद्गलको समझनेमे सहायक हो सकता है । अन्तर इतना है कि प्रकृति सूक्ष्म है और जिस प्रकार पुद्गलका प्रत्येकको अनुभव होता है इस प्रकार प्रकृतिका बोध तबतक नही होता जब तक कि वह महत् अहकार आदि रूपमे विकसित होती हुई बृहत् मूर्तिमान् रूपको धारण न कर ले।