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परमात्मा और सर्वज्ञता
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हुए आत्माका विकास नही हो सकता । निर्विकार परमज्योति परमात्मा अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य सदृश गुणोसे अलकृत होता है । वह ससारके राग-द्वेषमय प्रपचसे पृथक् रह स्वरूपमे निमग्न रहते हुए प्रेक्षकका कार्य करता है | सन्मार्गका प्रकाशन ऐसी आत्माके द्वारा विशेष समयपर होता है । उनका जीवन ही विश्वके लिए धर्मका महान् उपदेष्टा होता है ।
जगदुद्धारके लिए यह परमात्मा मानवरूपमे अवतार धारण करने आता है यह मान्यता उचित नही है । कारण, यदि जगत् के प्रति तनिक भी मोह रहा तो सर्वज्ञताका परम प्रकाश उस परम आत्माको नही मिलेगा । अवतारवादके विपयमे यह बात जाननी चाहिए कि विशेष परिस्थिति में आवश्यकतानुसार धर्मसस्थापन तथा अधर्म उन्मूलन के लिए कोई सच्ची लगनवाला साधारण मानव अपनी आत्मशक्तियोका विकासकर विश्वोपदेष्टाका कार्य करता है और उसी समर्थ एव पूर्ण आत्माको जगत् दिव्यात्माके रूपमें देखता है, मानता है तथा अर्चना करता है ।
देखिए, आचार्य श्रमितगति कितने मार्मिक शब्दोमे ऐसे स्वपुरुषार्थंके द्वारा बने परमात्माका मगलमय स्मरण करते है और जिससे जैनधर्मके मान्य परमात्म-स्वरूपका भी स्पष्टीकरण सुन्दर रूपमें प्रत्यक्ष हो जाता है
"यः स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दैर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १२ ॥ यो दर्शनज्ञानसुखस्वभावः समस्तसंसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १३ ॥ निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १४ ॥ विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीतः । त्रिलोकलोकी विकलोऽकलंकः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ १५ ॥