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परमात्मा और सर्वज्ञता
ही न्यायसंगत होगा । हर्बर्ट स्पेन्सरके समान 'अज्ञेयवाद' का समर्थन नही किया जा सकता । भला, उस पदार्थके सद्भावको कैसे स्वीकार किया जाए जो इस अनन्त जगत्मे किसी भी आत्माके ज्ञानका विपयभूत नही हुआ, नही होता है अथवा अनन्त भविष्यमें भी नही होगा । पदार्थोके अस्तित्वके लिए यह आवश्यक है, कि वे विज्ञान - ज्योतिके समक्ष अपने स्वरूपको बतानेमे सकोच न खाएँ, अन्यथा उन पदार्थोको रहनेका कोई अधिकार नही है । यो तो पदार्थ अपनी सहज शक्तिके वलपर रहते ही है, उनके भाग्य-विधानके लिए कोई अन्य विधाता नही है, किन्तु उनके सद्भावके निश्चयार्थं ज्ञान-ज्योतिमे प्रतिविम्वित होना आवश्यक है। इसका तात्पर्य यही है कि प्रत्येक पदार्थ किसी-न-किसी ज्ञाताके जानका ज्ञेय अवश्य था, है तथा रहेगा ।
जब पदार्थोंमे ज्ञानके विषय बननेकी शक्ति है, आत्मामे पदार्थोको जानने की सहज गक्ति है और जव आत्म-साधना के द्वारा चैतन्य-सूर्यका पूर्ण उदय हो जाता है तव ऐसी कौनसी वस्तु है जो उस आत्माके अलौकिक ज्ञानमे प्रतिविम्वित न होती हो और जिसे स्वीकार करनेमें हमारे तार्किकको पीड़ा होती है। जिस तरह चलने-फिरने दौड़नेमे शरीरकी मर्यादित शक्ति वाचक वन मर्यादातीत शारीरिक प्रवृत्तिको रोकती है, उस तरहका प्रतिवन्ध ज्ञानशक्तिके विषयमे नही है । पदार्थोका परिज्ञान करनेमे परम-आत्माको कोई कष्ट नही होता । जैसे, वाधक सामग्रीविहीन अग्निको पदार्थोंको भस्म करनेमे कोई रुकावट नही होती, उसी प्रकार राग - मोहादि बाधक सामग्रीविहीन आत्माको समस्त पदार्थोंको एक ही क्षणमे साक्षात्कार करनेमें कोई आपत्ति नही होती ।
सर्वज्ञताके सम्बन्धमे वैज्ञानिक धर्मका अन्वेषण करनेमें प्रयत्नशील और अन्तमे जैनधर्मको स्वीकार करनेवाली अंग्रेज वहिन डॉ० एलिजावेय फ्रेज़रने बड़े सरल शब्दोमे मार्मिक प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि