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________________ परमात्मा और सर्वज्ञता ४५ करते हैं। क्या धवलवर्णका शख विविध काचकामलादि रोगवालेको अनेक प्रकारके रगोवाला नही दिखाई देता? ___ भारतीय दार्शनिकोमे तत्त्व-मीमासासे अधिक ममत्त्व द्योतित करनेके लिए ही अपनेको मीमासक कहनेवाला इस परमात्मतत्त्वकी गुत्थीको सुलझानेमे अक्षम बन, उसे सर्वज्ञ स्वीकार करनेमे अपने आपको असमर्थ पाता है। आज भी उस दार्शनिक विचारधारासे प्रभावित पुरुष कह बैठते है कि परम पवित्र, परिशुद्ध आत्माको हम परमात्मा सहर्ष स्वीकार करते है, किन्तु, उसकी सर्वज्ञता-युगपत् त्रिकाल-त्रिलोकदर्शीपनेकी बात हृदयको नही लगती। यह हो सकता है कि तपश्चर्या, आत्मसाधना, आत्मोत्सर्ग आदिके द्वारा कोई पुरुष अपनेमे असाधारण ज्ञानका विकास कर ले, किन्तु, सकल विश्वका एक साथ एक क्षणमें साक्षात्कार करनेकी बात तो कवि-जगत्की एक सु-मधुर कल्पना है जो तर्ककी तीक्ष्ण ज्वालाको सहन नहीं कर सकती। जिस प्रकार कोई आदमी चार गज कूद सकता है तो दूसरा इसमे कुछ अधिकता कर सकता है , परन्तु, किसी आदमीके हजार मील एक क्षणमे कूदनेकी वात स्वस्थ मस्तिष्ककी उद्भूति नही कही जा सकती। उसी प्रकार सपूर्ण विश्वके चर-अचर अनन्तानन्त पदार्थोके परिज्ञाताकी वात तीन कालमे भी सम्भव नहीं हो सकती। क्योकि, जीवन अत्यल्प है, उसमे अनन्त और अपार तत्त्वोका दर्शन नहीं हो सकता। __ ऐसे मीमासकोका तर्क साधारणतया बडा मोहक मालूम पडता है , किन्तु, समीचीन विचार-प्रणालीसे इसकी दुर्बलताका स्पष्ट वोध हो जाता है। शरीरसे हीनाधिक कूदने-जैसी कल्पना अ-भौतिक, अमर्यादित, १ "त्वामेव वीततमसं परवादिनोऽपि नूनं प्रभो हरिहरादिधिया प्रपन्नाः। कि काचकामलिभिरीश सितोऽपि शखो नो गृह्यते विविधवर्णविपर्ययेण ॥ १८॥"-कल्याणमन्दिर।
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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