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जैनशासन
विवर्त माना है। इस प्रकार, शान्त भावसे दार्शनिक वाड्मयका परिशीलन करनेपर विदित होता है कि जैनदर्शनके अकर्तृत्व सिद्धान्तमें बहुतसे दार्शनिकोने हाथ बँटाया है। फिर भी, यह देखकर आश्चर्य होता है कि केवल जैन-दर्शन पर ही नास्तिकताका दोष लादा गया है। इसका वास्तविक कारण यह मालूम होता है कि जैनधर्म ऋग्वेदादि वैदिक वाड्मयको अपने लिए पथ-प्रदर्शक नहीं मानता। शुद्ध अहिसात्मक विचारप्रणालीको अपनी जीवननिधि माननेवाला जैन तत्त्वज्ञान हिसात्मक बलिविधानके प्रेरक वैदिक वाङ्मयका किस प्रकार समर्थन करेगा? इसका अर्थ यह नहीं है कि जैन-दार्शनिक वेद (ज्ञान) के विरोधी है। जैनधर्म प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप अपने अहिसामय विशिष्ट ज्ञानपुञ्जोका आराधक है। भगवजिनसेनने हिंसात्मक वाक्योको यमकी वाणी बताते हुए अहिसामय निर्दोष जैनधर्ममे वर्णित द्वादशागमय महाशास्त्रोको ही वेद माना है।
-(आदिपुराण) जैन-दर्शन क्रोध-मान-माया-लोभ, हास्य, भय, विस्मय आदि विकागेसे रहित वीतराग, सर्वज्ञ परम-आत्माको ईश्वर मानता है। वह विश्वकी क्रीडामे किसी प्रकार भाग नहीं लेता। वह कृतकृत्य है, विकृतिविहीन है तथा सर्व प्रकारकी पूर्णताओसे समन्वित है। उसी परमात्माको राग, द्वेष, मोह, अज्ञान आदिसे अभिभूत व्यक्ति अपनी भावना और अध्ययनके अनुसार विचित्र रूपसे चित्रित करते है। आत्मत्वकी दृष्टिसे हममे और परमात्मामे कोई अन्तर नहीं है, केवल इतना ही भेद है कि हममें दैवी शक्तिया प्रसुप्त स्थितिमे है और उनमें उन गुणोका पूर्ण विकास होने से वे आत्माएँ स्फीत बन चुकी है-इतनी निर्मल और प्रकाशपूर्ण है कि उनके आलोकमे हम अपना जीवन उज्ज्वल और दिव्य बना सकते है। विद्या-वारिधि बैरिस्टर चम्पतरायजीने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की ऑफ नॉलेज' ( Key of Knowledge ) मे लिखा है