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जैनशासन
दुनियाके कारखानेका ख़ुदा खुद खानसामा है।
न कर तू फिक्र रोटीकी, अगर्चे मर्ददाना है।' इस विचारधारासे अकर्मण्यताकी पुष्टि देख कोई कोई यह कहते है कि कर्म करनेमे प्रत्येक जीव स्वतन्त्र है , हा, कर्मोके फल-विभाजनमे परमात्मा न्याय-प्रदाताका कार्य करता है।
कोई चिन्तक सोचता है कि जब जीव स्वेच्छानुसार कर्म करनेमे स्वतन्त्र है और इसमे परमात्माके सहयोगकी आवश्यकता नहीं है तब फलोपभोगमे परमात्माका अवलम्वन अगीकार करना आवश्यक प्रतीत नही होता । एक दार्शनिक कवि कहता है
को काको दुख देत है, देत करम झकझोर। उरझे-सुरझे पापही, ध्वजा पवनके जोर ॥-'भैया' भगवतीदास।
अध्यात्म-रामायणमे कहा है-सुख-दुख देनेवाला कोई नही है । दूसरा सुख-दुख देता है यह तो कुबुद्धि ही है
"सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा।"
इस प्रकार जीवके भाग्यनिर्णयके विषयमे भिन्न भिन्न धारणाएँ विद्यमान है। इनके विषयमे गम्भीर विचार करनेपर यह उचित प्रतीत होता है कि अन्य विषयोपर विचारके स्थानमे पहिले परमात्माके विषयमे ही हम समीक्षण कर ले। कारण, उस गुत्थीको प्रारम्भमे सुलझाए विना वस्तु-तत्त्वकी तहतक पहुँचनेमे तथा सम्यक् चिन्तनमे बडी कठिनाइया उपस्थित होती है। विश्वको ईश्वरकी क्रीडा-भूमि अगीकार करनेपर स्वतत्र तथा समीचीन चिन्तनाका स्रोत सम्यक्पसे तथा स्वच्छन्द गतिसे प्रवाहित नहीं हो सकता। जहा भी तर्कणाने आपत्ति उठायी वहा ईश्वरके विशेषाधिकारके नामपर सब कुछ ठीक बन जाता है क्योकि परमात्माके दरवारमे कल्पनाकी बटन दबायी कि कल्पना और तर्कसे अतीत तथा तार्किकके तीक्ष्ण परीक्षणमे न टिकनेवाली वाते भी यथार्थताकी मुद्रासे अकित हो जाती है। जैसे, पहिले वाइसराय विशेषाधिकार