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विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म
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अपने जीवनको मगलमय वनावे । यह वीतरागका गासन पहले समस्त भारतमे वन्दनीय था। यह राष्ट्रवर्म रह चुका है। साप्रदायिक सकटो तथा धर्मान्धोंके लोमहर्पण करनेवाले अत्याचारोके कारण इसके आराघकोकी संख्या कम हुई। इन अत्याचारोके कारण और स्वल्पपर प्रकाग डालना आवश्यक नहीं प्रतीत होता। ___ आज विज्ञान प्रभाकरके प्रकागके कारण जो साप्रदायिकताका अन्वकार न्यून हुआ है, उससे इस पवित्र विद्याके प्रमारकी पूर्ण अनुकूलता प्रतीत होती है। जिनगणीकी महत्ताको हृदयगम करनेवाले व्यक्तियोंका कर्तव्य है कि इस आत्नोद्धारक तत्त्वज्ञानके रसास्वादन द्वारा अपने जीवन को प्रभावित करे और जगत्को भी इस ओर आकर्षित करे, ताकि सभी लोग अपना सच्चा कल्याण कर सके। इस कार्यमे निरानाके लिए स्थान नहीं है। सत्कार्योका प्रयत्न सतत चलता रहना चाहिए। जितने जीवोको सम्यक्ज्ञानकी ज्योति प्राप्ति होगी, वह ही महान् लाभ है। कम से कम "श्रेयः यत्नवतोऽस्त्येव'-प्रयत्न करनेवालोका तो अवश्य कल्याण है। हमे संगठित होकर ससारके प्रागणमे यह कहना चाहिए
जिनवाणी सुधा-सम जानिके नित पीजो धीधारी।
१ आधचरितन्, Indian Antiquary: Saletore's Iedieral Jainism, Dr Von Glasenapp's Jainimus, Smith's Fistory of India. आदि पुस्तकोंते इस वातका परिज्ञान हो सकता है। २ "आत्मा प्रभावनीयः रत्नत्रयतेजसा सततमेव । दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयश्च जिनधर्मः ॥"-पु० सि० श्लोक ३० ।
-रत्नत्रयके तेज द्वारा अपनी आत्माको प्रभावित करे तथा दान, तपश्चर्या, जिनेन्द्रदेवकी पूजा एवं विद्याकी लोकोत्तरताके द्वारा जिनशासनके प्रभावको जगत्में फैलावे।