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विश्वसमस्याएँ और जैनधर्म कमसे कम कितनी प्रवृत्ति करे और किस क्रमिक विकासपूर्ण पद्धतिसे आगे वढे ? महान् साधक श्रमणके पदको प्राप्त कर कैसे चर्या करे? जैन आचार ग्रन्थोमे इस विषयपर विशद विवेचन किया गया है। उदाहरणार्थ अपरिग्रह व्रतको देखिये। साधारण गृहस्थका कर्तव्य है कि अपनी आवश्यकतानुसार धनधान्य, वर्तन, वस्त्र, मकानादिकी मर्यादा वाधकर शेष पदार्थों के प्रति किसी प्रकारका ममत्व या तृष्णा न करे। उसका ममत्व मर्यादित पदार्थों तक ही सीमित हो जाता है। इस व्रतको निर्दोष पालनेके लिए पाच अतीचारो-दोषो (Transgressions) का रक्षण आवश्यक है। इस विषयके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रत्नकरडश्रावकाचारमे स्वामी समन्तभद्र कहते है
"अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि । परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पञ्च कथ्यन्ते ॥"-६२ प्रयोजनसे अधिक सवारी रखना, आवश्यक पदार्थोका अधिक सग्रह करना, दूसरेके वैभवको देखकर विस्मय धारण करना। जिससे यह व्यक्त होता है, कि धन दौलतके प्रति तुम्हारे हृदयमे मोह है, अन्यथा अधिक परिग्रहके कारण विशेष सुखी समझना चाहिए था। वहुत लोभ करना, वहुत भार लादना ये पाच अतीचार-दोप परिग्रहपरिमाणवतके कहे गए है।
इस परिग्रहपरिमाणव्रतके स्वरूपमे यह बताया है कि अपनी आवश्यकता तथा मनोवृत्तिके अनुसार धन, धान्यादिकी मर्यादा बाध लेनेसे चित्त लालचके रोगसे मुक्त हो जाता है। मर्यादाके वाहरकी सपत्तिके बारेमे "ततोऽधिकेषु निस्पृहता" का भाव रखना आवश्यक कहा है। ____ अहिसाके विषयमे वताया है कि वह प्राथमिक साधक यह प्रतिज्ञा करे कि मै सकल्प पूर्वक मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा किसी भी त्रस जीव ( mobile creature ) का प्राणघात न करूँगा, तब उसे स्थूल हिंसाका त्यागी कहेंगे। इस परिभापासे मास भक्षण, शिकार खेलना आदिका त्याग इस अहिंसकके लिए अनिवार्य