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जैनशासन
अजर-अमर-पदकी हृदयसे आकाक्षा करनेवाला साधक यही चिंतन करता है, कि अव मेरी अविद्या दूर हो गई। जिन-शासनके प्रसादसे सम्यक्ज्ञानज्योति प्राप्त हो गई। अब मैने अपने अनतगक्ति, ज्ञान तथा आनन्दके अक्षय भडाररूप आत्मतत्त्वको पहचान लिया, अत. शरीरके नष्ट होते हुए भी मै अमर ही रहूँगा। कितना उद्बोधक तथा गान्तिप्रद यह पद्य है
(७) "अब, हम अमर भए न मरेंगे। या कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों कर देह घरंगे ॥टेक ॥ रागद्वेष जग बन्ध करत है, इनको नाश करेंगे। मरयौ अनन्त काल तें प्राणी, सो हम काल हरेंगे ॥१॥ देह विनासी हों अविनासी, अपनी गति पकरेंगे। नासी नासो हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे ॥२॥ मरचो अनन्तवार विन समझो, अब दुःख-सुख विसरेगे।
'आनन्दघन' 'जिन' ये दो अक्षर, नहिं सुमरे तो मरेंगे ॥ ३॥" इस प्रकार जैनवाड मयका परिशीलन और मनन करने पर अत्यन्त दीप्तिमान् तत्त्व-रूप निधियोकी प्राप्ति होगी। तार्किक अकलंक जैनवाड मयरूप समुद्रको ही विश्वके रत्नोका आकर मानते है। आज अज्ञान, पक्षपात, प्रमाद आदिके कारण विश्व इन रत्नोके प्रकाशसे वचित रहा। आशा है कि अव सुज्ञजन सद्विचारोकी खानि जैनवाड मयका स्वाध्याय करेगे। आत्मसाधनाकी अगाध सामग्री जैनशास्त्रोमे विद्यमान है। इस वाड मयका सम्यक् अनुशीलन करनेवाले भगवती भारतीकी सदा अभिवदना करते हुए हृदयसे कहेंगे
"तिलोयहि मंडण धम्मह खाणि । तया पणमामि wिणदहवाणि ॥"
१ यह भजन गाधीजीको भजनावलिमें भी संग्रहीत किया गया है।