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जैनशासन
आत्म दर्शनकी सामर्थ्य उत्पन्न हो जाती है, वही वस्तुत ज्ञानवान् कहे जानेका पात्र है । वही सच्चा साधक तथा मुमुक्ष है । उसे साध्यको प्राप्त करते अधिक काल नही लगता
इद्रने भगवान् वृषभदेवके मुनि दीक्षा लेने पर जो चमत्कारजनक स्तुति की थी, उसे व्याजस्तुति अलकारसे सुसज्जित कर आचार्य जिनसेन कितने मनोहर शब्दो द्वारा व्यक्त करते है'
प्रभो, आपकी विरागता समझमे नही आती, राज्यश्री से तो आप विरक्त है, तपोलक्ष्मीमे आसक्त है तथा मुक्ति रमाके प्रति आप उत्कण्ठित है ।
आपमे समानदर्शपना भी कैसे माना जाय, आपने हेय और उपादेयका परिज्ञान कर सपूर्ण हेय पदार्थोंको छोड़ दिया और उपादेय को ग्रहण करनेकी आकाक्षा रखते है ।
आपमे त्याग भाव भी कैसे माना जाय ; पराधीन इंद्रियजनित सुखका आपने परित्याग किया और स्वाधीन सुखकी इच्छा करते है, इससे तो यही ज्ञात होता है कि आप थोडे आनन्दको छोडकर महान् सुखकी कामना करते है ।
भागचंद, दौलतराम, भूधरदास, द्यानतराय आदि कवियोने अपने भक्ति तथा रसपूर्ण भजनोके द्वारा ऐसी सुन्दर सामग्री दी है, कि एक
१ " राज्यश्रियां विरक्तोऽसि सरक्तोऽसि तपःश्रियाम् । मुक्तिश्रियां च सोत्कण्ठो गतैवं ते विरागता ॥ २३७ ॥ हेयमिवाखिलम् । समदर्शिता ॥ २३८ ॥
ज्ञात्वा हेयमुपेव च हित्वा उपादेयमुपादित्योः कथं ते
पराधीनं सुखं हित्वा सुखं
स्वाधीनमीप्सतः ।
त्यक्त्वाल्पां विपुलां चद्धिं वाञ्छतो विरतिः क्व ते ॥२३६॥"
-- महापुराण पर्व १७ ।
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