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जैनशासन
"न क्लेशो न धनव्ययो न गमनं देशान्तरे प्रार्थना केषाञ्चिन्न बलक्षयो न च भयं पीड़ा परस्यापि न । सावध न च रोगजन्मपतनं नैवान सेवा नहि चिद्रूपस्मरणे फलं बहु कथं तन्नाद्रियन्ते बुधाः ॥ ४-१ ॥" ममताके त्याग करनेसे रागद्वेष आदि दोष दूर होते है अतः समता तत्त्व का प्रेमी ममता का त्याग करे, तो कल्याण हो। वे कहते है
"रागद्वेषादयो दोषा नश्यन्ति निर्ममत्वत.।
साम्यार्थी सततं तस्मात् निमर्मत्वं विचिन्तयेत् ॥ १०-२० ॥" जिस प्रकार मेघमडल पर सूर्यको किरणे पडकर अपनी मनोरम छटा से जगत्को प्रमुदित करती है, उसी प्रकार सत्कविकी कल्पनाकी किरणो द्वारा पदार्थका स्वरूप बड़ा आकर्षक, आनन्दप्रद तथा आदर्श प्रदर्शक बन जाता है।
सम्राट् भरतके प्रधान सेनापति जयकुमारने भगवान् वृषभनाथके चरणोका अनुसरण कर दिगम्वरत्वकी दीक्षा धारण कर ली। इस घटनाको अपनी महाकविसुलभ कल्पनासे सजाते हुए जिनसेन स्वामीके शिष्य गुणभद्राचार्य कहते है - चक्रवर्ती सम्राट भरतेश्वर ने देखा कि आदि भगवान्का शासन विश्वव्यापी बन गया है, उनके महान् भारको धारण करनेके योग्य यह जयकुमार अच्छा पात्र है, यह सोचकर भरतराजने जयकुमारको प्रभुचरणोमे समर्पित किया। कैसी सुखद, सुन्दर तथा सुश्राव्य कल्पना है यह । महाकविकी काणीका विज्ञजन रसास्वाद करे
__"एष पात्रविशेषरते सवोढं शासनं महत् ।।
इति विश्वमहोशेन देवदेवस्य सोऽपितः ॥ २८४७ ॥" सावुत्व स्वीकार करनेके पुर्व प्रतापी सेनापति जयकुमारमे महाकवि जिनसेनको एक बड़ा दोष दिखता था, कि उसके श्री, कीर्ति, वीरलक्ष्मी तथा सरस्वती ये अत्यन्त प्रिय चार स्त्रिया है। कीर्ति तो ऐसी विचित्र है, कि वह गृहलक्ष्मी न बनकर त्रिभुवनमे विचरण करती है, लक्ष्मी