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पुण्यानुवन्धी वाड्मय "स नीरजाः स्यादपरोऽघवान् वा तद्दोषकोत्यैव न ते गुणित्वम् । स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥"
-विषापहार ११ ॥ कविवर वृन्दावन, मनरगलाल, वख्तावर, रामचन्द्र आदिने चौवीस तीर्थकरोकी पूजा द्वारा पवित्र भक्तिका प्रदर्शन किया है। भगवान् चद्रप्रभ अष्टम तीर्थकरको वैराग्य प्राप्त हुआ है। वे अब मुनिपद स्वीकार कर रहे है। उन्हे मुनि अवस्थामे चन्द्रपुरीमे महाराज चन्द्रदत्तने दुग्धका आहार कराया था। भगवान् स्फटिककी शिलापर विराजमान हो तपोवनमे श्रेष्ठ ध्यानमे निमग्न हो गए थे। भगवान्का शरीर समन्तभद्राचार्यने 'चन्द्रमरीचिगौरम्' कहा है। इस शुभ्रताको सूचित करनेवाली साधन-सामग्रीने कवि वृन्दावनजीको कितनी मनोहर कल्पनाकी प्रेरणा प्रदान की, यह सहृदय भक्तजन विचार सकते है। कवि कहते है"लखि कारण है जगतै उदास । चिन्त्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ॥४॥ तित लौकान्तिक वोध्यो नियोग । हरि शिविका सजि धरियो अभोग । ताप तुम चढ़ि जिन चन्दराय । ता छिनको शोभा को कहाय ॥५॥ जिन अंग सेत, सित चमर दार । सित छत्र शीस गल गुलकहार । सित रतन जड़ित भूषण विचित्र । सित चन्द्र चरण चरचे पवित्र ।।६।। सित तन-द्युति नाकाधीश पाप । सित शिविका कांधे धरि सुचाप । सित सुजस सुरेश नरेश सर्व । सित चितमें चिन्तत जात पर्व ॥७॥ सित चन्द्रनगर ते निकसि नाथ । सित वनमें पहुंचे सकल साथ । सित शिलाशिरोमणि स्वच्छ छाह । सित तप तित धारयो तुम जिनाह ॥८॥ सित पयको पारण परम सार । सित चन्द्रदत्त दीनो उदार । सित करमें सो पय धार देत । मानो बांधत, भव-सिन्धु सेत ॥६॥ मानो सुपुण्य धारा प्रतच्छ । तित अचरज पन सुर किय ततच्छ । फिर जाय गहन सित तप करन्त । सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त ।१०।"
-वृन्दावन चौवीसी पूजा।