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जैनशासन
तब तो विचारि कछु कियो नाहि बंध समै , याको फल उदै आयो हम कैसे करिहै । अब कहा सोच किए होत है अज्ञानी जीव , भुगते ही बने कृत्य कर्म कहं टरिहै । अबकै सम्हालके विचार काम ऐसो कर ,
जातं चिदानन्द फद फेरिमें न परिहै ॥" एकान्त पक्षको सत्पथ मान कर उसे अपना मत मानने वालो को मतवारा समझते हुए कवि 'शान्त रसवारे'का समर्थन करते हुए कहते है
"एक मतवारे कह अन्य मतवारे सब , मेरे मत-वार पर वारे मत सारे है। एक पंच-तत्त्ववारे एक एक-तत्व वारे, एक भम-मतवारे एक एक न्यारे है। जैसे मतवारे बकै तैसे मत-वारे बकै , तासो मतवारे तक बिना भतवारे है। शान्ति-रसवारे कह मतको निवारे रहै ,
तेई प्रान प्यारे लहै, और सब बार है।" एक समय जिनेन्द्र भक्तिमे तल्लीन एक कविको इस प्रकार की समस्यापूर्ति दी गई, जिसमे अकबरकी स्तुतिके प्रभावसे नही बचा जा सकता था। उस चालाकीके फन्देसे बचते हुए कविने अपने पवित्र आदर्शकी किस प्रकार रक्षा की इसका परिज्ञान इस पद्यसे होगा
"जिय बहुतक वेष घर जगमें छबि भा गई आज दिगम्बर की। चिन्तामणि जब प्रगट्यो यिमें , तब कौन जरूरत डम्बर की। जिन तारन-तरन हि । सेय लिए , परवाह कर को जब्बर की।