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________________ ३७५ पुण्यानुवन्धी वाड्मय बिना इकाईके अकेले शून्योका भी कुछ मूल्य या महत्त्व होता है ? इस दृष्टिको आचार्य महाराज कितनी स्पप्टताके साथ बताते है "जिसके हृदयमे निर्मल आत्माका वास नही होता , तत्त्वत क्या शास्त्र, पुराण एव तपश्चर्या उसे निर्वाण प्रदान कर सकती है?' ___'यथार्थमे निर्वाण प्राप्तिकी प्रथम सीढी आत्मदर्शन है। आत्म-दर्शन, आत्म-अवबोध तथा आत्मनिमग्नताके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है'।' ___ पाहुड दोहामे रार्मासह मुनि आत्मवोधको परमकला वताते हुए कहते है "अक्षरारूढ स्याही मिश्रित (ग्रन्थोको) को पढ पढकर तू क्षीण हो गया, किन्तु तूने इस परमकलाको नही जाना, कि तेरा उदय कहा हुआ और तू कहा लीन हुआ। जीवन अल्पकाल स्थायी है, अत उपयोगी और कल्याणकारी वाड मयका ही अभ्यास करना चाहिये। इस विपयमे कवि कहते है___ "शास्त्रोका अन्त नहीं है, जीवन अल्प है और अपनी बुद्धि ठिकाने नही है । अत वह वात सीखनी चाहिये, जिससे जरा और मरणके पजे से छुटकारा हो जाय।" मोही प्राणीको पुन प्रबुद्ध करते हुए कहते है १ "अप्पा णियमणि णिम्मलउ, णियमें वसइण जातु ।। सत्यपुराणइ तव चरणु, मुक्खु जि कहि कि तासु ॥ ६ ॥" -परमात्मप्रकाश । २ "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" त० सू० १।१ । ३ "अक्खरचडिया मसि मिलिया पाढत्तो गम खीण । एक्क ण जाणी परमकला कहिं उग्गउ कहि लोण ॥ १७३ ॥" ४ "अन्तो णत्यि सुईणं कालो थोवो वर च दुम्मेहा । त णवर तिल्खियध्वं जि जरमरणक्षय कुहि ॥ ९ ॥"
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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