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________________ ३६८ जैनशासन भैया भगवतीदास, भूधरदास, द्यानतराय, दौलतराम, जयचन्द, टोडरनल, सदासुख और भागचन्द आदि विद्वानोने बहुमूल्य' रचनाए की है, जिनसे साधकको विगेप प्रकाग और स्फूर्ति प्राप्त हुए बिना न रहेगी । हजारो अपूर्व अपरिचित ग्रथोके विषयमे परिज्ञान कराना एक छोटेसे लेखके लिये असभव है। अत. हमने संक्षेपमे उस विशाल जैनवाङ्मयरूप समुद्रकी इस सक्षिप्त लेख रूप वातायन द्वारा अत्यन्त स्थूलरूपसे एक झलकमात्र दिखाना उचित समझा जिससे विशेष जिज्ञासाका उदय हो । अव हम कुछ अवतरणो द्वारा इस बात पर प्रकाश डालेगे कि, जैन रचनाओमे कितनी अनुपम, सरस, शात तथा स्फूर्तिपूर्ण सामग्री विद्यमान है । अमृतचन्द्र सूरि अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ नाटक समयसारमे लिखते है-'जव तात्त्विक दृष्टि उदित होती है, तब यह बात प्रकाशित होती हैं कि आत्माका स्वरूप परभावसे भिन्न है, वह परिपूर्ण है, उसका न आरम्भ है और न अवसान है । वह अद्वितीय है, सकल्प-विकल्पके प्रपचसे वह रहित है ।' आत्मा अमर है, इस विषय मे अमृतचन्द्र सूरिका कितना हृदयग्राही स्पष्टीकरण है ? वे कहते है - "प्राणोके नाशका ही तो नाम मृत्यु १ इनके परिचय के लिए इसी संस्थासे प्रकाशित 'हिन्दी जैन साहित्यका संक्षिप्त इतिहास' पुस्तक देखना चाहिए । २ ‘आत्मस्वभावं परभावभिन्नमापूर्ण माद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलीनसंकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥ " - ना० स० १० 1 किलास्यात्मनो ३ " प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणाः ज्ञानं तत् स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किंचन भवेत् तद्भोः कुतो ज्ञानिनो निःशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विन्दति ॥" - ना० स० ६ २७ ॥
SR No.010053
Book TitleJain Shasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1950
Total Pages517
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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