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जैनगासन
महर्षि गुणभद्रने लिखा है कि- " जगत् के जीवोकी आशा, तृष्णाका गड्ढा बहुत गहरा है - इतना गहरा कि उसमे हमारा सारा विश्व अणुके समान दिखायी देता है । तव भला, जगत्के अगणित प्राणियोकी आशाकी पूर्ति इस एक विश्वके द्वारा करें तो एक-एक प्राणीके हिस्सेमे इस जगत्का कितना - कितना भाग आएगा । "
faras वैभव आदिसे आत्माकी प्यासका वुझना यह अज्ञ जीव मानता है । किन्तु, वैभव और विभूतिके वीचमे विद्यमान व्यक्तियोके पास भी दीन-दुखी जैसी आत्माकी पीडा दिखायी देती है। देखिये न, आजका धन कुबेर माना जानेवाला हेनरी फोर्ड कहता है कि"मेरे मोटरके कारखानेमें काम करनेवाले मजदूरोका जीवन मुझसे अधिक आनन्द-पूर्ण है, उनके निश्चित जीवनको देखकर मुझे ईर्षा-सी होती है कि यदि मैं उनके स्थानको प्राप्त करता तो अधिक सुन्दर होता ।" कैसी विचित्र बात यह है कि धन-हीन गरीब भाई आशा-पूर्ण नेत्रोसे धनिकोकी ओर देखा करते है, किन्तु वे धनिक कभी-कभी सतृष्ण नेत्रोसे उन गरीवोके स्वास्थ्य, निराकुलता आदिको निहारा करते है । इसीलिए योगिराज पूज्यपाद ऋषि भोगी प्राणियोको सावधान करते हुए कहते है- "कठिनतासे प्राप्त होनेवाले कष्ट - पूर्वक सरक्षण योग्य तथा विनाश-स्वभाव वाले धनादिके द्वारा अपने आपको सुखी समझनेवाला व्यक्ति उस ज्वरपीडित प्राणीके समान है जो गरिष्ठ घी पीकर क्षण-भरके लिए अपनेमे स्वस्थताकी कल्पना करता है ।"
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१ "आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कि कस्य कियदायाति वृथा वो विषयैषिता ॥"
- श्रात्मानुशासन श्लो० ६६ ।
२ "दुरज्येनासुरक्ष्येण नश्वरेण धनादिना ।
स्वस्थम्मन्यो जनः कोऽपि ज्वरवानिव सर्पिषा ॥ १३ ॥ "
- इष्टोपदेश