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पुण्यानुवन्धी वाड्मय , ' ३५७ न्धरचम्पू आदिको शब्दसौन्दर्य, रचनाचातुर्य, अर्थगभीरताके कारण विद्वानोके लिए सम्माननीय बताया है। अलकार शास्त्रके रूपमें अलकारचितामणिको भी महत्त्वपूर्ण कहा है।
व्याकरणके क्षेत्रमें जैनेन्द्र, शाकटायन, गव्दार्णव, कौमार, त्रिविक्रम, चिन्तामणि प्रभृति उपलब्ध भाष्यो एव मूल ग्रन्थोकी गणना करनेपर जैन व्याकरणके लगभग तीस ग्रन्थ पाए जाते है। पाणिनीयके साथ जैनेन्द्रकी सूक्ष्मदृष्टिसे तुलना करने पर जैनेन्द्रकार महर्पि पूज्यपादका शब्दशास्त्र पर अधिकार, सूत्ररचनापाटव, अर्थबहुलता तथा अल्पशब्दप्रयोग आदि वाते समीक्षकके अन्त करण पर अपना स्थान वनाए विना नही रह सकती। खेद इतना है, कि जिस प्रकार पाणिनीय व्याकरणके अध्ययनादि द्वारा उसका प्रचार किया जाता है, उसी प्रकार जैनेन्द्र व्याकरणके प्रति आत्मीयता .तथा ममत्व नहीं है। जहा वैयाकरणोकी दुनियामे अर्धमात्राकी न्यूनता पुत्रोत्पत्ति सदृग आनद प्रदान करती है, वहा जैनेन्द्र के सूत्रोमे अनेक शब्दोका लाघव देख पूज्यपाद स्वामीकी लोकोत्तरता प्रकाशित होती है और कविकी यह उक्ति सार्थक प्रतीत होती
"प्रमाणमकलकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥" यदि असाम्प्रदायिक तथा मार्मिक विचारक भावसे जैन रचनाओके साथ अन्य कृतियोकी तुलना की जाय, तो जानीजनोको जैनवाड्मयकी यथार्थ महत्ताका बोध हो। जैन रचनाओका उचित परिशीलन, उनपर आलोचनाओका निर्माण किया जाना एव शुद्ध अनुवादोका प्रकाशमे आना अत्यन्त आवश्यक है। कालिदासका मेघदूत ससारमें विख्यात हो गया है, किन्तु उसकी समस्यापूर्ति करते हुए भगवान् पार्श्वनाथका जीवन गुम्फित करने वाले भगवत् जिनसेनके पार्वाभ्युदयका कितने लोगोने दर्शन किया है ? अव तक ऐसी महनीय रचना का हिन्दी अनुवाद