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पुण्यानुवन्धी वाड्मय
३४६ "राग उदै जग अन्ध भयो सहज सब लोगन लाज गवाई। सीख विना नर सीख रहे विषयादिक सेवनको सुघराई ॥ ता पर और रचे रस-काव्य कहा कहिए तिनको निठुराई । अन्ध असूझनकी अखियान मै, झोकत है रज राम दुहाई ॥" कविवर विधाताकी भूलको बताते हुए कहते है"ए विधि ! भूल भई तुम ते, समुझे न कहा कसरि बनाई । दीन कुरगनके तनमें, तृन दन्त धरै, करना नहि आई ॥ क्यों न करी तिन जीभन जे रस काव्य करें पर कौं दुखदाई । साधु अनुग्रह दुर्जन दण्ड, दोऊ सधते विसरी चतुराई ॥"
आधुनिक कोई कोई विद्वान् उस रचनाको पसन्द नही करते, जिसमें कुछ तत्त्वोपदेश या सदाचार-शिक्षणकी ध्वनि ( didactic tone ) पाई जाती है। वे उस विचारधारासे प्रभावित है जो कहती है कि विशुद्ध, सरस और सरल रचनामे स्वाभाविकताका समावेश रहना चाहिये। रचनाकारका कर्तव्य है कि चित्रित किए जाने वाले पदार्थोके विषयमे दर्पणकी वृत्ति अगीकार करे।
जहा तक जनानुरजनका प्रश्न है, वहा तक तो यह प्राकृतिक चित्रण अधिक रस-सवर्धक होगा , किन्तु मनुष्य-जीवन ऐसा मामूली पदार्थ नही है, जिसका लक्ष्य मधुकरके समान भिन्न भिन्न सुरभिसम्पन्न पुष्पोका रसपान करते हुए जीवन व्यतीत करना है। मनुष्य-जीवन एक महान् निधि है, ऐसा अनुपम अवसर है, जवकि साधक आत्मशक्तिको विकसित करते हुए जन्म-जरा-मरणविहीन अमर जीवनके उत्कृष्ट और उज्ज्वल आनन्दकी उपलब्धिके लिये प्रयत्न करे। अतएव सन्तोने जीवन के प्रत्येक अग तथा कार्यको तबही सार्थक तथा उपयोगी माना है, जवकि वह आत्मविकासको मधुरध्वनिसे समन्वित हो। भोगी व्यक्तियोको धर्मकथा अच्छी नहीं लगती। महापुराणकार जिनसेन तो कहते है कि 'पवित्र धर्मकथाको सुनकर असत् पुरुषो