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पुण्यानुवन्धी वाड्मय तकको छीन लिया है। जीवधरकुमारने अपने पराक्रम, पुरुषार्थ एव 'पुण्य के प्रभावसे अपने राज्यको पुन प्राप्त तो कर लिया, किन्तु आत्मसाम्राज्यको प्राप्त करनेके लिये अन्तमें उन्हे सव अनात्म पदार्थोका परित्याग कर जिनेन्द्रकी शरण लेनी पड़ी। अन्तमे वे कृतार्थ हुए, कृतकृत्य वने,
और मोहारिजेता वन अविनाशी जीवनके अधिपति हो गए। वाह्य रिपुओ की विजयके लिये अस्त्र , शस्त्र, सैन्यादिकी आवश्यकता पडती है, किन्तु इस जीवको जन्मजरामरण की विपदाओके फन्दे से बचाने वाली यदि किसीमे शक्ति है तो वह है कर्मारिविजेता जिनेन्द्र की वीतरागताका लोको
त्तर मार्ग।
मूलाचार में कहा है
"जम्म-जरा-मरण-समाहिदम्हि सरणं ण विज्जदे लोए। जम्ममरणमहारिउवारणं तु जिणसासणं मुत्ता ॥"
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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय भगवती सरस्वतीके भण्डारकी महिमा निराली है। उसके प्रसादसे यह प्राणी मोहान्धकारसे वचकर आलोकमय आत्मविकासके क्षेत्रमें प्रगति करता है। इस युगमें इतने वेगसे विपुल सामग्री भारतीके भव्य भवनमे भरी जा रही है कि उसे देख कविकी सूक्ति स्मरण आती है" अनन्तपारं किल शब्दशास्त्रं स्वल्पं तथायुर्वहवश्च विघ्नाः । सारं ततो ग्राह्यमपास्य फल्गु हंसर्यथा क्षीरमिवाम्बुराशेः ॥"
१ इस लोकमें जन्म, जरा, मृत्युसे बचनेके लिए कोई भी शरण नहीं । हां, जन्म, जरा, मरण रूप महाशत्रुका निवारण करनेकी सामर्थ्य जिन शासनके सिवाय अन्यत्र नहीं है।