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परात्मके प्रांगणमे
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यात्मक दृष्टिसे अशोकको जैन तथा वौद्धधर्मके प्रचारको वातोका विरोध नहीं रहता है।
'राजावलिकथे' नामक कन्नड ग्रंथ अनोकको जैन बताता है। महाकवि कल्हणने अपने सस्कृत अथ 'राजतरगिणी' में अशोक द्वारा काश्मीरमें जैनधर्मके प्रचार करने का उल्लेख किया है। 'डा० टामस भी उपरोक्त वातका समर्थन करते है। अबुलफजलके 'आइने अकवरी' से भी अशोकका जीवन जैनधर्मसे सवधित प्रमाणित होता है। अगोकके उत्तराविकारी सम्प्रतिके वारेमे 'विश्ववाणी' मासिक पत्रिकाने १९४१ में यह प्रकाशित किया था कि सम्राट् सप्रतिने अरबस्तान और फारसमे जैन सस्कृतिके केंद्र स्थापित किए थे। वह वडा नूरवीर तथा धार्मिक था। प्रो० पिशल और मुकर्जी आदिका अध्ययन इस निष्कर्षको बताता है कि अगोकके नामसे विख्यात अनेक महत्त्वपूर्ण शिलालेख यथार्थमें सप्रति के है। प्रियदर्गी रूपमे सप्रतिका ही वर्णन किया गया है। "Epitome of Jainism' मे सप्रतिको महान् वीर जैन नरेश और धर्मप्रवर्वक कहा है, जिसने सुदूर देशोमें जैनधर्मके प्रचारका प्रयत्न किया था।
१ "यः शान्तवृजिनो राजा प्रपन्नो जिनशासनम् ।
पुष्कलेऽत्र वितस्तात्रौतस्तार स्तूपमण्डले ॥"-राजतरंगिणी अ०१॥ 8. Early Faith of Asoka by Thomas.
"Sampratı was a great Jain monarch and a staunch supporter of the faith. He erected thousands of temples throughout the length and breadth of his Tast empire and consecreted large number of images, He is said to have sent Jain missionaries and aseties abroad to preach Jainism in the distant countures and spread the faith amongst the people there.".-Epitome of Jainism.