________________
इतिहासके प्रकाशम
३०५
वर्णन और उसकी यथार्थताका परिज्ञान करानेवाली मथुराकी जनस्तूप आदि सामग्रीको दृष्टिमे रखते हुए श्री विसेन्ट स्मिथ लिखते हैं"इन खोजोसे लिखित जैन परपराका अत्यधिक समर्थन हुआ है। वे इस वातके स्पष्ट और अकाट्य प्रमाण है कि जैनधर्म प्राचीन है और वह प्रारभमे भी वर्तमान स्वरूपमे था। ईसवी सन्के प्रारभमे भी चौबीस तीर्थकर अपने-अपने चिह्न सहित निश्चयपूर्वक माने जाते थे।"
जव स्मिथ सदृश प्रकाण्ड ऐतिहासिक विद्वान् जैनपरपराके प्रतिपादनसे अविरुद्ध सामग्रीको देखकर उसे अकाट्य कहते है तव ऐतिहासिक क्षेत्रमे विज पुरुपोका जैन मान्यताओको उचित आदर प्रदान करना चाहिए। जैनवाड मयकी गब्दावली आदिमे कुछ सादृश्य देखकर कोई कोई लोग जैन और बौद्ध धर्मोको अभिन्न समझा करते थ, किन्तु अर्वाचीन शोध दोनो धर्मोकी भिन्नताको पूर्णतया स्पष्ट करती है। सवत् १०७० मे रचित अपने 'धर्मपरीक्षा' नामक संस्कृत ग्रन्यमे अमितगति आचार्य कहते है कि भगवान पार्श्वनाथके शिष्य मौडिलायन नामक तपस्वीने वीर भगवान्से' रुष्ट होकर बुद्ध दर्शन स्थापित किया और अपने आपको शुद्धोदनका पुत्र वुद्ध परमात्मा कहा।'
"The discoveries have to very large extent supplied corroboration to the written Jain tradition and they offer tangible and incontrovertible proof of the antiquity of the Jain religion and of its early existence very much in its present form. The series of twenty four pontiffs (Tirthamkaras) each in huis distinctive emblem was evidently firmly
believed in at the beginning of the Christian era" २. "रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः ।
शिष्यः श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमन्नवीत् ॥ अ० १८॥"
२०