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साधकके पर्व
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से स्याद्वाद गगाका अवतरण इस मगलमय असवर पर हुआ था, अतएव उस महान् शुद्ध एव सात्त्विक स्मृतिका उद्बोधक होनेके कारण वह 'वीरशासन दिवस' साधकके लिये सर्वदा अभिवदनीय है। यदि भगवान्ने अपना सार्वजनीन अनेकान्तमय अभय उपदेश न दिया होता, तो ससार मोहान्धकारमे निमग्न रहकर अपथगामी रहता।
"वोर-हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतमके मुख कुण्ड ढरी है। मोह-महामद-भेद चली, जगकी जडतातप दूर करी है। ज्ञान-पयोनिधि माहि रलो, बहु-भगतरगनिसो उछरी है। ता शुचि शारद गगनदी प्रति मै अँजुलीकर शीस धरी है। या जगमदिरमें अनिवार अज्ञान अधेर छयो अतिभारी। श्री जिनकी धुनि दीप-शिखासम जो नहि होत प्रकासनहारी। तो किह भाति पदारथ पांति कहा लहते लहते अविचारी। या विधि सन्त कहें धनि है धनि है जिन बैन बडे उपगारी॥" यह दिवस वीरशासनके प्रकाशनके द्वारा मगल रूप होनेके पूर्व भी अपना विशिष्ट स्थान धारण करता था। भोगभूमिकी रचनाके अवसान होनेपर कर्मभूमिका आरम्भ इसी दिन हुआ था। यतिवृषभ प्राचार्यने तिलोयपष्णत्तिमे इस समयको वर्षका आदि दिवस बताया है, कारण श्रावणमास वर्पका प्रथम मास कहा है। श्रमण सस्कृतिवालोका वर्षारभ श्रवण नक्षत्रयुक्त श्रावण माससे होना उपयुक्त तथा सगत भी दिखता है। वर्षाकालसे धार्मिक जगत् का सवत्सर आरभ होना ठीक मालूम पडता है। उस समय मेघमाला जलधारा द्वारा विश्वको परितृप्त करती ---------------- -------- १ "वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए।
अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स । ६६ ॥ सावणबहुले पाडिवरुद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जुगुस्स आदी इमस्स पुढं ॥ ७० ॥"