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आत्मजागृति के साधन - तीर्थस्थल
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जैन तीर्थयात्रा विवरणमे निर्वाणभूमि, अतिशय क्षेत्र पचकल्याणक स्थल सव साधको के लिये पूज्यस्थल वताए है । हमने कतिपय स्थलोका ही ऊपर सक्षिप्त वर्णन किया है, अन्यथा हमे वडवानी स्टेटमे विद्यमान चूलगिरिके विपयमे प्रतिपादन करना अनिवार्य था । वहासे इन्द्रजीत, कुम्भकर्णने तप-साधना के फलस्वरूप सिद्धि प्राप्त की। बड़वानी के समीप भगवान् ऋषभदेवकी ८४ फीट ऊची खड्गासन मूर्तिकी विशालता दर्शकोको चकित कर देती है । इतनी विद्यालमूर्ति अन्यत्र नही है | इतिहासातीत कालकी मूर्ति कही जाती है। अब पुरातन मूर्ति का जीर्णोद्धार हो जानेसे पुरातत्त्वज्ञ प्राचीनताका प्रत्यक्ष वोध प्राप्त करने मे असमर्थ है।
निर्वाणप्राप्त आत्माएँ लोकके शिखरपर विद्यमान रह अपने ज्ञान तथा आनन्द स्वभाव में निमग्न रहती है । न कि जैसा वौद्ध मानता है, कि दीपकका तेल -स्नेह समाप्त होनेपर वह बुझ जाता है, उसी प्रकार स्नेहरागादिके क्षय होनेसे जीवन प्रदीप भी बुझ जाता है। जैनदृष्टिमे आत्माके विकारोका पूर्ण क्षय होता है, तथा पूर्ण परिशुद्ध आत्माका पूर्ण विकास होता है।
साधककी मनोवृत्ति निर्मल करनेमे पुण्यस्थलोको निमित्तमात्र कहा है । वैसे तो जिस किसी स्थलपर समासीन हो समर्थ साधक विकारोके विनाशार्थं प्रवृत्त होता है, वही निर्वाणस्थल वन जाता है | दुर्बल मनोवृत्तिवाले साधकोके लिये अवलम्वनकी आवश्यकता होती है । समर्थ जिस प्रकार प्रवृत्ति करता है, वह माग वन जाता है। आचार्य अमितगति कहते है - "न सस्तरो भद्र, समाधिसाधनं
न लोकपूजा न च संघमेलनम् । वतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामपि वाह्यवासनाम् ॥”
- द्वात्रिंशतिका २३ ।