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ननगासन
महाकवि बनारसीदासजीके अर्थक्रयानकमें संवत् १६६१ में विवजीकी यात्राका वर्णन है, जिसने तत्कालीन सामाजिक व्यवहारका भी पर्यात बोय होता है
"माहिब माह मलीम की, हीरानंद मुकीम । अोमवाल कुल जौहरी, यनिक वित्तको सीम ॥ २२४ ।। तिन प्रयागपुर नगर सौं, कोनो उद्यम सार। संघ चलायौ सिखरकी, उतरचौ गंगा पार ॥ २२५ ॥ ठौर-ठौर पत्री दई, भई खबर जित तित्त। चीठी अई सेन की, आवह जात-निमित्त ॥ २२६ ॥ दरगसेन तब उठ चले, ह तुरंग अमवार। जाड नंटजी को मिले, तजि कटव दरवार ।। २२७ ॥"
"संवत मोलह सं उकसके। आए लोग संघ मी नटे ॥ कई उबरे केई मुए। केई महा जहमती हुए ॥२३॥ खरगमेन पटने मौं आइ । जहमति परे महा दुख पाइ । उपजीविया उदरके रोग । फिरि उपसमीग्राउ बलजोग ॥२४०॥"
"मंघ पृष्टि बहु दिसि गयो, आप आपको हो ।
नदी नाव संजोग ज्यो, बिरि मिल नहिं कोइ ॥ २४३ ।। इस यात्रामें लगभग मात्र मानका समय व्यतीत हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है। जब मंघ ग्रीष्ममें रवाना हुआ था, तब गिखरजीसे लाटते हुए बीमारीका बाय कारण वर्षाजनित जलकी खराबी ही रही होगी। इन यात्रा -८ माहका समय लगा गेली कल्पना हमने इमलिए की कि उस वीत्र बनारसीदासजी अपना हाल लिखते है, कि
"खरगनेन जात्राको गए। बानारसी निरंकुश भए । कर कलह माता मों नित्त । पाठबनायको जात निमित्त ॥२२॥