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जैनशासन
शरीरादिकमे आत्माकी भ्रान्ति धारण करनेवाला बहिरात्मा है। मन, दोष और आत्माके विषयमै भ्रान्तिरहित अन्तरात्मा है। कर्ममलरहित परमात्मा है। ___ आत्म-विकासके परिज्ञान निमित्त मापदण्डके रूपमे तीर्थकरोने जीवकी चौदह अवस्थाएँ, जिन्हे गुणस्थान कहते हैं, बतलाई है। बहिरात्मा विकासविहीन है, इसलिए उसकी प्रथम अवस्था मानकर उसे मिथ्यात्वगुणस्थान बताया है। तत्त्वज्ञानकी जागृति होनेपर जब वह अन्तरात्मा बनता है तब उसे चतुर्थ आत्मविकासको अवस्थावाला-अविरत सम्यग्दृष्टि कहते है। उस अवस्थामे वह आत्म-शक्तिके वैभव और कर्मजालकी हानिपूर्ण स्थितिको पूर्ण रीतिसे समझ तो जाता है, किन्तु उसमें इतना आत्मबल नहीं है कि वह अपने विश्वासके अनुसार साधना पथमे प्रवृत्ति कर सके। वह इन्द्रिय और मन पर अकुश नहीं लगा पाता, इसलिए उसकी मनोवृत्ति असयत-अविरत होती है।
धीरे-धीरे बल-सम्पादन कर वह सकल्पी हिंसाका परित्याग कर कमसे कम हिंसा करते हुए सयमका यथाशक्ति अभ्यास प्रारम्भ कर एकदेशआशिक सयमी अथवा व्रती श्रावक नामक पचम गुणस्थानवर्ती बनता है और जब वह हिसादि पापोका पूर्ण परित्याग करता है तब उस महापुरुषको आत्म-विकासकी छठवी कक्षावाला दिगम्बर-मुनिका पद प्राप्त होता है। वह साधक जव कषायोको मन्दकर अप्रमत्त होता है तब प्रमाद रहित होनेके कारण अप्रमत्त नामक सातवी अवस्था प्राप्त होती है। इसी प्रकार क्रोधादि शत्रुओका क्षय करते हुए वह आठवी, नवमी, दसवी, बारहवी अवस्थाको (उपशम करनेवाला ग्यारहवी श्रेणीको) प्राप्त करते हुए तेरहवे गुणस्थानमे पहुँच केवली, सर्वज्ञ, परमात्मा आदि शब्दोसे सकीर्तित किया जाता है । यह आत्मा चार घातिया कर्मोका नाश करनेसे विशेष समर्थ हो अरिहन्त कहा जाता है। आत्म-विकास की छठवीसे वारहवी कक्षा तकके व्यक्तिको साधु कहते है।