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समन्वयका मार्ग-स्याद्वाद
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स्वेच्छानुसार जैसी लहर आई उसके अनुसार अस्ति-नास्ति आदि भग नही होते अन्यथा स्याद्वाद अव्यवस्थावादकी प्रतिकृति बन जाएगा। इसीलिए सप्तभगीकी व्याख्यामे 'अविरोधेन' शब्द ग्रहण किया गया है। ___'स्यात्' शब्दका अर्थ कोई-कोई 'शायद' करके स्याद्वादको सन्देहवाद समझते है। वास्तवमें स्यात्के साथ 'एव' शब्द इस बातको द्योतित करता है कि उस विशेष दृष्टि बिंदुसे पदार्थका वही रूप है और वह निश्चित है, उस दृष्टिसे वह अन्यथा नही हो सकता। वस्तुस्वरूपकी अपेक्षा अस्तिरूप ही है। कभी भी स्वरूपकी अपेक्षा वह नास्तिरूप नही कही जा सकती। काशीके प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् स्याहादमे वेदान्तियोके अनिर्वचनीयतावादकी झलक पाते है। उनके शब्द हैं-"जो हो, जैन मतका "स्याद्वाद" वही वेदान्त मतका अनिर्वचनीयता वाद। शब्दोका भेद है, अर्थका नहीं। ____अनिर्वचनीयतावाद सप्तभग न्याय-प्रणालीका एक विकल्प है। वस्तुके अस्ति और नास्ति रूप धर्मोको एक साथ कहनेकी असमर्थताके कारण उसे कथञ्चित् अनिर्वचनीय कहा है। वेदान्त दृष्टि एकान्तरूप है, वह सत्त्व, असत्त्व आदि धर्मोके अस्तित्वको स्वीकार करती है। स्याहादसे सम्वद्ध अनर्वचनीयतावादमें अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्मोकी अवस्थिति पाई जाती है। आचार्य विद्यानन्दि कहते है, "सत्त्व अर्थात् अस्तित्व पदार्थका धर्म है, उसे अस्वीकार करनेपर वस्तुका वस्तुत्व नहीं रहेगा। वह गधेके सीगके समान अभावरूप हो जायगा। वस्तु कथञ्चित् असत् रूप है, स्वरूप आदिके समान पर-रूपसे भी वस्तु का असत्त्व यदि आपत्तिपूर्ण हो तो प्रतिनियत-प्रत्येक पदार्थका पृथक् पृथक् स्वरूप नहीं रहेगा। और तव वस्तुओके प्रतिनियमका विरोध होगा।
१ डॉ. भगवानदासजी, 'जैनदर्शन'का स्याद्वादांक पृ० १८० ।